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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २७३ __ अनुवाद-"जैसे पुरुष को लोहे की बेड़ी भी बाँधती है, और सुवर्ण की बेड़ी भी, वैसे ही जीव के लिए शुभकर्म भी बन्ध का कारण है और अशुभ कर्म भी।"
एहु ववहारे जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु।
बहुविहभावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु॥ १/६०॥ प.प्र.। अनुवाद-"व्यवहारनय की अपेक्षा जीव कर्मों का निमित्त पाकर अनेकरूप से परिणमन करता है। इसी से पाप और पुण्य होते हैं।"
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ॥ ८०॥ स.सा.। अनुवाद-"जीव के (शुभाशुभ) परिणामों के निमित्त से पुद्गलद्रव्य कर्मरूप में परिणमित हो जाता है। इसी प्रकार पुद्गलकर्मों के उदय के निमित्त से जीव भी (शुभाशुभभाव-रूप में) परिणमित हो जाता है।"
इसी प्रकार शीर्षक ७.२ में उद्धृत 'जासु ण वण्णु' (प.प्र.१ / १९-२१) तथा 'जीवस्स णत्थि वण्णो' (स.सा. ५०-५५) आदि दोहों और गाथाओं में भी पर्याप्त आकृति-साम्य है। मोक्खपाहुड की 'जह फलिहमणि' इस ५१वीं गाथा के भाव को जोइन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश (अधिकार २) के 'णिम्मलफलिहहँ' इत्यादि दोहों (१७६, १७७) में उतारा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की परिभाषाएँ भी परमात्मप्रकाश (१ / ७६-७७) और मोक्खपाहुड (१४-१५) में समान हैं। परमात्मप्रकाश के टीकाकार ब्रह्मदेव ने ७६ वें और ७७ वें दोहों की टीका में उक्त गाथाएँ उद्धृत की हैं। ___ छठी शती ई० के परमात्मप्रकाश एवं योगसार में कुन्दकुन्द के विचारों, शब्दों, शैली और गाथाओं का यह प्रचुर अनुकरण इस तथ्य का ठोस प्रमाण है कि आचार्य कुन्दकुन्द छठी शताब्दी ई० से पूर्ववर्ती थे।
७ वीं श. ई. के वरांगचरित में कुन्दकुन्द की गाथाओं का संस्कृतीकरण
वरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी का समय सातवीं शती ई० प्रायः सर्वमान्य है। उन्होंने कुन्दकुन्द की कतिपय गाथाओं को संस्कृत-रूपान्तर के साथ 'वरांगचरित' में सन्निविष्ट किया है। यथा
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