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________________ २७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ जीवहँ मोक्खहँ हेउ वरु दंसणु णाणु चरित्तु। ते पुणु तिण्णि वि अप्पु मुणि णिच्छएँ एहउ वुत्तु॥२/१२॥ प.प्र.। अनुवाद-"जीवों के मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं और उन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिये, ऐसा निश्चयनय का कथन है।" दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो॥ १६॥ स.सा.। अनुवाद-"साधु को सदा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना करनी चाहिए और तीनों को निश्चयनय से आत्मा ही मानना चाहिए।" अण्णु जि दंसणु अस्थि ण वि अण्णु जि अस्थि ण णाणु। अण्णु जि चरणु ण अस्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु॥१/९४॥ प.प्र.। अनुवाद-“हे जीव! तू ऐसा जान कि आत्मा को छोड़कर न तो अन्य कोई दर्शन है, न अन्य कोई ज्ञान है, न अन्य कोई चारित्र है (अर्थात् आत्मा ही दर्शनज्ञानचारित्रमय है)।" ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण सणं जाणगो सुद्धो॥ ७॥ स.सा.। अनुवाद-"व्यवहारनय से ऐसा उपदेश दिया जाता है कि जीव में दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं। निश्चयनय से जीव में न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र, जीव शुद्ध (एकमात्र) ज्ञायकभाव है।" जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि। जे सुहु असुह परिच्चयहिँ ते वि हवंति हु णाणि॥ ७२॥ यो.सा.। अनुवाद- "हे पण्डित! जैसे लोहे की साँकल को तू साँकल समझता है, वैसे ही सोने की साँकल को भी साँकल समझ। जो शुभ और अशुभ दोनों भावों का परित्याग कर देते हैं, वे ही निश्चय से ज्ञानी होते हैं।" सोवणियं पिणियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं॥१४६॥ स.सा.। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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