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________________ २७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ यह दोहा समयसार की निम्नलिखित गाथा से प्रभावित है कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे । कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कहं कया ते ॥ २५४॥ स.सा. । अनुवाद - " यदि सभी जीव कर्मोदय से दुःखी-सुखी होते हैं, तो तुम उन्हें कर्म तो (कहीं से लाकर) देते नहीं हो, (कर्मों के बन्धन में तो बाँधते नहीं हो), तब उन्हें दु:खी-सुखी कैसे कर सकते हो?" होइ अहम्मु । ७.५. शुभ, अशुभ, शुद्ध भाव का प्ररूपण सुहपरिणा धम्मु पर असु दोहिँ वि एहिँ विवज्जियउ सुद्ध ण बंधइ कम्मु ॥ २ / ७१ ॥ प.प्र. । अनुवाद - " शुभ परिणाम से पुण्यबन्ध होता है और अशुभ परिमाण से पापबन्ध । इन दोनों से रहित शुद्ध परिणाम कर्मों का बन्ध नहीं करता । " लेहु । भाउ विसुद्ध अप्पणउ धम्मु भविणु - गइ - दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडतड एहु ॥ २ / ६८ ॥ प.प्र. । अनुवाद - " अपने विशुद्धभाव को ही धर्म समझकर ग्रहण करो। वही चतुर्गति के दुःखों में गिरते हुए जीव को सँभालता है ।" अ०१० / प्र० १ परमात्मप्रकाश के उपर्युक्त दोहे प्रवचनसार की अधोलिखित गाथाओं के गर्भ से प्रकट हुए हैं धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सुद्धसंपयोगजुदो । Jain Education International असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि सग्गसुहं ॥ १/११॥ अनुवाद – “ धर्मपरिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग - युक्त होता है, तो निर्वाणसुख प्राप्त करता है, और शुभोपयोग-युक्त होता है, तो स्वर्गसुख । " ( १/११)। णेरइयो । अच्छंतं ॥ १ / १२ ॥ अशुभोपयोग से ग्रस्त होने पर कुनर, तिर्यंच और नारकी होकर दुःखसहस्र से पीड़ित होता हुआ संसार में भटकता रहता है । " ( १ / १२) । ७.६. आत्मा के बहिरात्मादि-भेदत्रय का निरूपण For Personal & Private Use Only मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति विहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूठु हवेइ ॥ १/१३॥ प.प्र.। www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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