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अ०१० / प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २६९
णिरंजणु तासु ॥ १ / १९ ॥
जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सहु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥ १/ २० ॥
अनुवाद - " जिसमें न वर्ण है, न गंध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, जिसका न जन्म होता है, न मरण, उसी का नाम निरंजन (शुद्धात्मा ) है । " ( १ / १९) ।
" जिसमें न क्रोध है, न मोह, न मद, न माया, न मान, जिसके न ध्यान के स्थान हैं, न ध्यान, हे जीव ! उसे ही निरंजन (परमात्मा) समझ।'' (१ / २०)। परमात्मप्रकाश के उपर्युक्त दोहों में आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की निम्नलिखित गाथाएँ स्पष्टतया प्रतिबिम्बत हो रही हैं
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥ ५० ॥
जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ॥ ५१ ॥ ७. ३. निश्चयनय से आत्मा के कर्म-अकर्तृत्व का प्रतिपादन बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भइ ॥ १ / ६५ ॥ प. प्र.। अनुवाद - " हे जीव ! जीव के बन्ध और मोक्ष, सभी का कर्त्ता 'कर्म' है, आत्मा कुछ नहीं करता, ऐसा निश्चयनय का कथन है । "
पर. प्र. की यह उक्ति आचार्य कुन्दकुन्द की अधस्तन गाथा पर आधारित
वि कुव्व णवि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराई ।
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥ ३९९ ॥ स.सा.। तो कर्त्ता है, न भोक्ता, केवल
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अनुवाद- 'ज्ञानी विभिन्न प्रकार के कर्मों का न कर्मों के बन्ध, फल और पुण्य-पाप का ज्ञाता है । "
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७. ४. निश्चयनय से सुख-दुःख के कर्मकृत होने का प्रतिपादन
दुक्खु वि सुक्खु वि बहुविहउ जीवहँ कम्मु जणे ।
अप्पा देक्ख मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ॥ १ / ६४ ॥ प.प्र.।
अनुवाद - " जीवों में अनेक प्रकार के सुख - दुःख आत्मा केवल देखता और जानता है, ऐसा निश्चयनय
कर्म ही उत्पन्न करता है, कहता है । "
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