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२६८ / जैनपरम्परा
और यापनीयसंघ/ खण्ड २
अ०१०/प्र.१
६वीं श. ई. के परमात्मप्रकाश में कुन्दकुन्द का अनुकरण
परमात्मप्रकाश और योगसार के कर्ता जोइन्दुदेव छठी शताब्दी ई० में हुए थे। इसका प्रमाण पूर्व में सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी के काल-निर्धारण-प्रसंग में उद्धृत किया जा चुका है। जोइन्दुदेव ने कुन्दकुन्द के विचारों, शब्दों और शैली का परमात्मप्रकाश एवं योगसार में प्रचुरतया अनुकरण किया है। यथा७.१. निश्चय-व्यवहारनयों से आत्मादि का प्ररूपण
जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसारु।
सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लि वि ववहारु॥१/४६॥ प.प्र.। अनुवाद-“हे योगी! जिस परमात्मा के निश्चयनय से न बन्ध है, न संसार उसका समस्त व्यवहार को छोड़कर मन में ध्यान कर।
जो तइलोयहँ झेउ जिणु सो अप्पा णिरु बुत्तु। - णिच्छयणइँ एमइ भणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥ २८॥ यो.सा.। अनुवाद-"जो 'जिन' तीनों लोकों के ध्येय हैं, उन्हें ही आत्मा कहा गया है, यह निश्चयनय का कथन है। इसमें शंका नहीं करनी चाहिए।"
मग्गण-गुण-ठाणइ कहिया विवहारेण वि दिट्टि।
णिच्छयणइँ अप्पा मुणहि जिम पावहु परमेट्ठि॥ १७॥ यो.सा.। अनुवाद-"मार्गणाओं और गुणस्थानों का कथन व्यवहारनय से किया गया है। निश्चयनय से तू आत्मा को ही जान, जिससे तुझे परमेष्ठिपद प्राप्त हो सके।" ये उक्तियाँ कुन्दकुन्द के निम्नलिखित वचनों का अनुसरण करती हैं
जीवे कम्मं बद्धं पुटुं चेदि ववहारणयभणिदं। सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुटुं हवइ कम्म॥ १४१॥ स.सा. । परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं॥ १५१॥ स.सा.। ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स॥ ५६॥ स.सा. । ७.२. निश्चयनय से आत्मा के वर्णरागादि-रहितत्व का प्रतिपादन
परमात्मप्रकाश के निम्नलिखित दो दोहे द्रष्टव्य हैं
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