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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २६७
एगो मे सासदो अप्पा णाणदसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ ५९॥ भा.पा.। एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा॥ २७॥ इष्टो.। समाधितन्त्र के कुछ श्लोक कुन्दकुन्द की गाथाओं में किञ्चित् परिवर्तन कर रचे गये हैं। यथा
णियदेहसरित्थं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण। अच्चेयणं पि गहियं झाइजइ परमभाएण॥ ९॥ मो.पा.। स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्। परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति॥ १०॥ स.तन्त्र ।
सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं। सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्डए मोहो॥ १०॥ मो.पा.। स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्।
वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः॥ ११॥ स.तन्त्र। यह आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचवीं शती ई० के पूज्यपाद स्वामी से पूर्ववर्ती होने का एक अन्य प्रमाण है। ६.४. कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में पूज्यपाद के ग्रन्थों की सामग्री नहीं
पूर्व में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है कि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कुन्दकुन्द की जिन गाथाओं को प्रमाणरूप में उद्धृत किया है, उन्हें उद्धृत करने के पहले 'उक्तं च' शब्दों का प्रयोग कर यह स्पष्ट कर दिया है कि वे पूज्यपाद की स्वरचित गाथाएँ नहीं हैं, अपितु अन्यत्र से ग्रहण की गई हैं। और वे गाथाएँ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होतीं, इससे सिद्ध है कि वे कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों से ग्रहण की गयी हैं। इस प्रकार जब पूज्यपाद स्वामी से कुन्दकुन्द पूर्ववर्ती सिद्ध हो जाते हैं, तब यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि समाधितन्त्र और इष्टोपदेश में जो पद्य कुन्दकुन्द की गाथाओं से साम्य रखते हैं, वे कुन्दकुन्द की ही गाथाओं के संस्कृत-रूपान्तर हैं। ऐसा नहीं है कि पूज्यपाद के पद्यों को प्राकृत में रूपान्तरित कर कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में समाविष्ट किया है।
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