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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २६५ उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। आबादे (धे) ज्ज कुलिंगो मरेज तज्जोगमासेज॥ ३ / १७.१ ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिदो समए। मुच्छापरिग्गहो त्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो॥ ३ / १७.२॥
(ये दोनों गाथाएँ तात्पर्यवृत्ति-पाठ में हैं।) ___ 'एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम्' (५/१४) सूत्र की टीका में पूज्यपाद स्वामी ने 'एक स्थान में अनन्तानन्त पुद्गलों का अवगाह संभव है' इस तथ्य की पुष्टि के लिए 'पञ्चास्तिकाय' की 'ओगाढगाढणिचिओ' गाथा आगमप्रमाण के रूप में प्रस्तुत की है, यह पूर्व (शीर्षक ३.३) में बतलाया जा चुका है। यह पंचास्तिकाय की ६४वीं गाथा है। प्रवचनसार के द्वितीय अधिकार में भी यह कुछ परिवर्तन के साथ ७६ वें क्रमांक पर कथित है।
___ 'प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्' (५/१६) सूत्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए 'धर्मादि द्रव्यों का परस्पर प्रवेश होने पर भी वे अपना स्वभाव नहीं छोड़ते, इसलिए उनमें अभेद नहीं होता' इस नियम की पुष्टि पूज्यपाद स्वामी ने पंचास्तिकाय की निम्नलिखित सातवीं गाथा सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' वचन के साथ उद्धृत करके की है
अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। . मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भावं ण जहंति॥ ७॥
उन्होंने 'अणवः स्कन्धाश्च' (५ / २५) सूत्र के अन्तर्गत 'अणु' को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'जिसका आदि भी वही होता है, मध्य भी वही होता है और अन्त भी वही होता है, उसे अणु कहते हैं' और इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने सर्वार्थसिद्धि में नियमसार की निम्नलिखित गाथा (२६) 'उक्तं च' कहकर प्रमाणरूप में प्रस्तुत की है
अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं व इंदिये गेझं।
जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं विआणाहि॥ २६॥ इस प्रकार पूज्यपाद देवनन्दी ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आगम के रूप में स्वीकार किया है और उनके वचनों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत कर अपने कथन की पुष्टि की है। पूज्यपाद द्वारा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आगमरूप में स्वीकार किये जाने से सिद्ध होता है कि उनके समय में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आगम का दर्जा प्राप्त था, और इस दर्जे की प्राप्ति कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के सुदीर्घ अस्तित्व के बिना संभव नहीं है।
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