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अ०१० / प्र०१
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रक्ते वस्त्रे यथात्मानं न रक्तं रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं
रत्ते वत्थें जेम बहु देहु ण देहिं रत्तिं णाणि तहँ अप्पु ण
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २६३
मन्यते तथा । मन्यते बुधः ॥ ६६ ॥
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स. तन्त्र ।
मण्णइ रत्तु ।
मण्णइ रत्तु ॥ २/१७८ ॥ प.प्र. ।
डॉ० ए० एन० उपाध्ये परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना ( Introduction) में पृष्ठ ३० पर लिखते हैं- " Turning to Samādhiśataka of Pujyapāda, P.-Prakāśa agrees with it very closely, and I feel no doubt that yōgindu has almost verbally followed that model. " अर्थात् " पूज्यपाद के समाधिशतक से परमात्मप्रकाश का घनिष्ठ साम्य है और इसमें सन्देह नहीं कि योगीन्दु ने उसका अक्षरशः अनुसरण किया है।" डॉ० उपाध्ये ने समाधिशतक और परमात्मप्रकाश के उन पद्यों के क्रमांक भी दर्शाये हैं, जिनमें अक्षरशः साम्य दृष्टिगोचर होता है। डॉ. उपाध्ये आगे लिखते हैं- "There are many common ideas besides these close agreements.' (Introduction, p.30) । अर्थात् " इस पद्यगत घनिष्ठ साम्य के अतिरिक्त पूज्यपाद और योगीन्दु के अनेक विचारों में भी साम्य है ।"
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छठी शती ई० के परमात्मप्रकाश में पूज्यपाद - स्वामी - कृत समाधिशतक (समाधितन्त्र) के पद्यों की उपलब्धि इस तथ्य की पुष्टि करती है कि पूज्यपाद देवनन्दी का स्थितिकाल पाँचवी शती ई० से नीचे नहीं जा सकता ।
सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी भी पूज्यपाद के इस कालनिर्धारण से सहमत हैं, यह उनके निम्नलिखित वक्तव्य से ज्ञात होता है
“स्वोपज्ञ माने जानेवाले भाष्य को यदि अलग किया जाय, तो तत्त्वार्थसूत्र पर जो सीधी टीकाएँ इस समय उपलब्ध हैं, उन सब में पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' प्राचीन है । पूज्यपाद का समय विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं - छठीं शताब्दी निर्धारित किया है, इससे सूत्रकार वा० उमास्वाति विक्रम की पाँचवीं शताब्दी से पहले किसी समय हुए हैं, ऐसा कह सकते हैं। "७४
इस प्रकार आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद स्वामी) का सर्वमान्य समय ४५० ई० के लगभग है । अतः सर्वार्थसिद्धि का रचनाकाल भी यही है ।
७४. ‘तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति '/' अनेकान्त '/ वर्ष १ / किरण ६-७ / वि.सं. १९८७, वीर नि. सं. २४५६ / पृष्ठ ३९० ।
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