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________________ २६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ के कर्ता जोइन्दुदेव (योगीन्दुदेव) का स्थितिकाल विद्वानों ने छठी शताब्दी ई० निर्धारित किया है। इसका प्रमुख प्रमाण यह है कि सातवीं शती ई० के प्राकृत वैयाकरण चण्ड ने अपने प्राकृतलक्षण नामक व्याकरणग्रन्थ में 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरण में परमात्मप्रकाश का यह दोहा उद्धृत किया है काल लहेविणु जोइया जिम-जिम मोह गलेइ। तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णिय मैं अप्पु मुणेइ॥ १/८५॥३ अनुवाद-“हे योगी! काल पाकर ज्यों-ज्यों मोह विगलित होता है, त्यों-त्यों जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, पश्चात् नियम से आत्मस्वरूप को जानता है।" जोइन्दुदेव आचार्य कुन्दकुन्द के अतिरिक्त पूज्यपाद देवनन्दी से भी अत्यधिक प्रभावित हैं। उन्होंने पूज्यपाद के प्रसिद्ध अध्यात्मग्रन्थ समाधितन्त्र के भी अनेक पद्य अपभ्रंश में रूपान्तरित कर परमात्मप्रकाश में समाविष्ट किये हैं। यथा- ' यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥ ३१॥ स. तन्त्र। जो परमप्या णाणमउ सो हउँ देउ अणंतु। जो हउँ सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु॥ २/१७५ ।।प.प्र.। जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्णं मन्यते तथा। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुधः॥ ६४॥ स. तन्त्र। जिण्णिं वत्थिं जेम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु। देहिं जिण्णिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु॥ २/१७९॥ प.प्र.। नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा। नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः॥ ६५॥ स.तन्त्र। वत्थु पण?इ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णछ। णढे देहे णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ णट्ठ॥ २/१८०॥ प.प्र.। ७३. देखिए , परमात्मप्रकाश / इण्ट्रोडक्शन : ए. एन. उपाध्ये / पृ.७५ तथा 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' । खण्ड २ / पृ.२ पृ. २४६-२४८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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