SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २५९ लिखित गाथा भी है समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि। तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा॥ ३/४५॥ इस गाथा के साथ भी उपुर्यक्त 'धम्मेण परिणदप्पा' गाथा का शब्दगत और अर्थगत साम्य है तथा इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है कि 'धम्मेण परिणदप्पा' गाथा में ग्रन्थकार (प्रवचनसार के कर्ता) ने स्वयं कहा है कि शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थसमवाय है-"धम्मेण परिणदप्या इति' स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थ-समवायः।" इन प्रमाणों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि 'धम्मेण परिणदप्पा' गाथा कुन्दकुन्दकृत ही है। तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त (क्रमांक २ से ५ तक की) गाथाओं का पूर्वापर गाथाओं के साथ वैसा कार्यकारणभाव एवं लक्ष्यलक्षणभाव सम्बन्ध नहीं है, जैसा प्रवचनसार की पूर्वापर गाथाओं के साथ है। अतः स्पष्ट है कि वे तिलोयपण्णत्ती की मौलिक गाथाएँ नहीं है, अपितु प्रवचनसार से लाकर रखी गई हैं। ___ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से निम्नलिखित गाथाएँ भी तिलोयपण्णत्ती के उपर्युक्त अधिकार में आत्मसात् की गयी हैं १. देहो य मणो वाणी - प्र.सा./२/६९, ति.प./९/३३। २. णाहं पोग्गलमइओ - प्र.सा./२/७०, ति.प./९/३४। ३. एवं णाणप्पाणं - प्र.सा./२/१००. ति.प./९/३५। ४. परमाणुपमाणं वा ६९ - प्र.सा./३/३९, ति.प./९/४१ । ५. जस्स ण विजदि रागो पं.का./१४२, ति.प./९/२४। ६. जो सव्वसंगमुक्को - पं.का./१५८, ति.प./९/२६। ७. पयडिट्ठिदिअणुभाग पं.का./७३, ति.प./९/४९। ८. तम्हा णिव्वुदिकामो ७० पं.का./१७२, ति.प./९/४२। ९. केवलणाणसहावो नि.सा./९६, ति.प./९/५०। १०. ण वि परिणमदि स.सा./७६, ति.प./९/६८। ११. जाव ण वेदि विसेसंतरं - स.सा./६९, ति.प./९/६७। १२. जो संकप्पवियप्पो - स.सा./ता.वृ.पाठ/२८८, ति.प./९/६५। १३. बंधाणं च सहावं - स.सा./२९३, ति.प./९/६६। १४. पडिकमणं पडिसरणं - स.सा./३०६, ति.प./९/५३। ६९. पाठभेद : उत्तरार्ध-"विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि।" प्र.सा./३/३९ । "सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।" ति.प./९/४१ । ७०. केवल गाथा के पूर्वार्ध में साम्य है। - Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy