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________________ २५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ ५. अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणं। . अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं॥ प्र.सा. १/१३, ति.प.९/६३। ६. सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥ प्र.सा. १/१४ । यहाँ 'परिणमदि जेण' इस प्रथम गाथा में कहा गया है कि "आत्मा जिस समय जिस भाव में परिणत होता है, उस समय वह उस-भावमय (तन्मय) होता है, इसलिए धर्मपरिणत आत्मा को धर्म ही मानना चाहिए। इसी कारण-कार्य-नियम के परिणाम का प्रदर्शन 'जीवो परिणमदि जदा' इस उत्तरगाथा में किया गया है। उसका अर्थ है-"जीव जब शुभभाव में परिणत होता है, तब शुभ होता है, जब अशुभभाव में परिणत होता है, तब अशुभ होता है और जब शुद्धभाव में परिणत होता है, तब शुद्ध होता है, क्योंकि जीव परिणाम-स्वभाववाला है। ___'धम्मेण' और 'असुहोदयेण' इन दो गाथाओं में शुद्ध, शुभ और अशुभ भावों में परिणत होने के फल बतलाये गये हैं कि धर्मपरिणत (मुनिव्रतधारी)६८ आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त होता है, तो निर्वाणसुख प्राप्त करता है और शुभोपयोग से युक्त होता है, तो स्वर्ग सुख पाता है। इसके विपरीत अशुभपयोग-परिणत जीव कुमानुष, तिर्यंच या नारकी होकर निरन्तर दुःखों से पीड़ित होता हुआ दीर्घकाल तक संसरण करता है। ___'अइसयमाद' इस गाथा में शुद्धोपयोग के बल से प्राप्त होनेवाली सिद्धावस्था के सुख का वर्णन किया गया है और 'सुविदिद' इत्यादि गाथा में शुद्धोपयोग के लिए आवश्यक योग्यताओं का निरूपण है, जिसमें बतलाया गया है कि जो श्रमण आगम का सम्यग्ज्ञाता, संयम तप से युक्त, विगतराग तथा सुख-दुःख में समभाव धारण करनेवाला है, उसके शुद्धोपयोग होता है। इस प्रकार प्रवचनसार की उपर्युक्त छहों गाथाएँ वर्ण्यविषय की एकता तथा कार्यकारणभाव एवं लक्ष्यलक्षणभाव-सम्बन्धों से परस्पर जुड़ी हुई हैं। पहली गाथा में धम्मपरिणदो आदा और तीसरी गाथा में धम्मेण परिणदप्पा इन पदों का साम्य भी उक्त गाथाओं के पारस्परिक सम्बन्ध का द्योतक है। इससे सिद्ध होता है कि उपर्युक्त छहों गाथाएँ मूलतः प्रवचनसार की हैं। प्रवचनसार के तृतीय अधिकार में एक निम्न६८. "सकलसङ्गसंन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशात् --- अर्हदादिषु ---भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य, तावन्मात्ररागप्रवर्तित-परद्रव्यप्रवृत्ति-संवलितशुद्धात्मवृत्तेः, शुभोपयोगि चारित्रं स्यात्।" तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति / प्रवचनसार / ३ / ४६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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