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________________ अ०१०/प्र.१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २५७ परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। ____संसारगमणहे, वि मोक्खहे, अयाणंता॥ ९/५७॥ यह समयसार के पुण्यपापाधिकार की १५४ वीं गाथा है और पुण्यपाप-प्रकरण से इसका अर्थगत तादात्म्य है। इसके अतिरिक्त इसके पूर्व निबद्ध तीन गाथाओं में तथा उत्तरवर्ती एक गाथा में परमार्थ (आत्मस्वरूप) में स्थित और अस्थित मुनि की परिणतियों का वर्णन किया गया है, जो 'परमट्ठो खलु समओ' (स.सा.१५१), 'परमट्ठम्हि दु अठिदो' (स.सा.१५२), 'परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं' (स.सा.१५३) एवं 'परमट्ठमस्सिदाण दु' (स.सा.१५६) इन उक्तियों से सूचित होता है। उपर्युक्त १५४ वीं गाथा में भी परमार्थबाह्य मुनियों की परिणति का वर्णन है। इस शब्दसाम्य और भावसाम्य से भी उसका पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती गाथाओं से तादात्म्य है। इससे सिद्ध है कि वह मूलतः समयसार की ही गाथा है। तिलोयपण्णत्ती में न तो पुण्यपाप का कोई प्रकरण है, न ही परमार्थस्थित और परमार्थबाह्य मुनियों की परिणति की प्रतिपादक अन्य गाथाएँ हैं, यहाँ तक कि परमार्थ के अर्थ की व्याख्या भी किसी पूर्व गाथा में नहीं की गई, जैसी समयसार की 'परमट्ठो खलु समओ' (१५१) इत्यादि गाथा में की गई है। वस्तुतः शुद्धात्मस्वभाव के अर्थ में परमार्थ शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द की देन है। यह इस बात के निर्णय के लिए पर्याप्त सबूत है कि उपर्युक्त गाथा का मूल तिलोयपण्णत्ती में नहीं है, अपितु उसके 'सिद्धत्व-हेतुभाव' अधिकार में रखे जाने योग्य होने से उसे समयसार से ले लिया गया है। प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथाओं में से भी प्रथम और अन्तिम को छोड़कर शेष सभी ज्यों की त्यों उसी क्रम से तिलोयपण्णत्ती में मिलती हैं. १. परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो॥ प्र. सा. १/८ । २. जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो॥ प्र. सा.१/९, ति.प. ९/६० । ३. धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं॥ प्र.सा.१/११, ति.प.९/६१। ४. असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं॥ प्र. सा. १/१२, ति.प.९/६२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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