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२५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
" जो जिनोपदेश पाकर मोहरागद्वेष का विनाश करता है, वह शीघ्र ही समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है ।" (प्र.सा./ १ / ८८) ।
समयसार की उक्त तीन गाथाएँ एक (मिश्र) वाक्यरूप हैं। तीनों गाथाओं के द्वारा ही एक कथन पूर्ण होता है। आदि की ढाई गाथाएँ उद्देश्यरूप हैं और अन्तिम आधी गाथा विधेयरूप । अन्तिम गाथा के उत्तरार्ध में कर्मविमुक्त आत्मा की प्राप्ति के कार्य का वर्णन है और आदि की ढाई गाथाओं में उसके कारणों का । इससे सिद्ध है कि दूसरी गाथा का 'जो सव्वसंगमुक्को' इत्यादि पूर्वार्ध उक्त गाथासमूह का अविभाज्य अंग है, अतएव समयसार का मौलिक अंश है। इसी प्रकार प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथा अपनी पूर्ववर्ती 'जिणसत्थादो अट्ठे' (प्र. सा. १/८६) आदि गाथाओं के आधार पर अस्तित्व में आयी है, इसलिए वह भी प्रवचनसार की मौलिक गाथा है।
कुन्दकुन्द की इन गाथाओं में से दूसरी गाथा के पूर्वार्ध और अन्तिम गाथा के उत्तरार्ध को लेकर यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती की यह गाथा निर्मित की हैजो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा |
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेन ॥ ९/५१ ॥
प्रवचनसार के प्रथम अधिकार में आचार्य कुन्दकुन्द ६९वीं गाथा से लेकर ७६वीं गाथा तक आठ गाथाओं में पुण्यजन्य इन्द्रियसुख को भी दुःखरूप ही बतलाते हुए ७७ वीं गाथा में उपसंहार रूप में कहते हैं
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥ १/७७॥
अनुवाद - " जो ऐसा नहीं मानता कि पुण्य और पाप में भेद नहीं है, वह मोह से आच्छन्न हो घोर और अपार संसार में भ्रमण करता है । "
पुण्य की दुःखरूपता का प्रतिपादन करने के बाद उपसंहाररूप में इस गाथा का कथन स्वाभाविक होने से सिद्ध है कि यह प्रवचनसार की मौलिक गाथा है। यह गाथा तिलोयपण्णत्ती (९/५८) में भी ज्यों की त्यों मिलती है, किन्तु उसके पूर्व में पुण्य की दुःखरूपता का वैसा प्रतिपादन नहीं है, जैसा प्रवचनसार में है, जिससे सिद्ध है कि वह तिलोयपण्णत्ती की अपनी गाथा नहीं है । किन्तु वह उसके 'सिद्धत्व - हेतुभाव' अधिकार में संग्रह - योग्य थी, इसलिए आचार्य यतिवृषभ ने उसका उसमें संग्रह कर लिया है।
इस गाथा के पहले तिलोयपण्णत्ती में निम्नलिखित गाथा भी पायी जाती है—
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