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अ०१० / प्र० १
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २५५
अनुवाद - " शरीर, धनधान्य, सुखदुःख और शत्रुमित्र जीव के साथ सदा नहीं रहते, केवल उपयोगलक्षण आत्मा सदा रहता है । " ( २ / १०१ ) ।
"ऐसा जानकर जो परमात्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, विशुद्ध होता हुआ मोहनीय कर्म की अशुभ ग्रन्थि को नष्ट कर देता है ।" (२ / १०२) ।
" जो पुरुष मोहग्रन्थि को नष्ट कर श्रमणावस्था में रागद्वेष का विनाश करता हुआ सुखदुःख में समभाव धारण करता है, उसे अक्षयसुख की प्राप्ति होती है।" (२/१०३) ।
ये तीनों गाथाएँ अर्थ की दृष्टि से परस्पर सम्बद्ध हैं । दूसरी गाथा के 'जो एवं जाणित्ता' (जो ऐसा जानकर ) ये शब्द पहली गाथा में कहे हुए अर्थ को संकेतित करते हैं और तीसरी गाथा के 'जो णिहदमोहगंठी' (जो पुरुष मोहग्रंथी का विनाश करता है) शब्द दूसरी गाथा में कथित मोहदुर्ग्रन्थि का विनाश करनेवाले की ओर संकेत करते हैं। दोनों गाथाओं में प्रयुक्त 'मोहग्रन्थि' शब्द से दोनों के अर्थगत अन्तःसम्बन्ध की विशेषतया पुष्टि होती है। यह आधारभूत अन्तः सम्बन्ध सिद्ध करता है कि ये तीनों गाथाएँ प्रवचनसार की मौलिक गाथाएँ हैं। आचार्य यतिवृषभ ने इनमें से 'जो णिहदमोहगंठी' इस तीसरी गाथा को तिलोयपण्णत्ती में सम्मिलित किया है। वह उसके नौवें महाधिकार की ५४वीं गाथा है।
समयसार और प्रवचनसार में नीचे लिखी गाथाएँ उपलब्ध होती हैं
अप्पाणमप्पणा संधिऊण दो पुण्णपावजोएसु ।
दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरओ य अण्णम्हि ॥ १८७॥ स.सा. ।
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जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा | णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चेयेइ
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो
एयत्तं ॥ १८८ ॥ स.सा. ।
अणण्णमओ । कम्मपविमुक्कं ॥ १८९॥ स.सा.। जोण्हमुवदेसं ।
जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ १ / ८८ ॥ प्र.सा. ।
अनुवाद - " जो शुभ और अशुभ दोनों योगों से निवृत्त होकर आत्मा को आत्मा से ही रोककर, दर्शनज्ञान में स्थित होता है एवं अन्य पदार्थों की इच्छा से रहित होकर सर्व परिग्रह से मुक्त हो जाता है, पश्चात् आत्मा को आत्मा से ही ध्याता है तथा कर्म और नोकर्म से तनिक भी स्पृष्ट न होते हुए केवल चैतन्यभाव से ही एकत्व का अनुभव करता है, वह जीव आत्मा का ध्यान करते हुए दर्शनज्ञानमय हो जाता है, और शीघ्र ही कर्ममुक्त आत्मा को पा लेता है। " ( स.सा./ १८७-१८९)।
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