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२५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.१ "जो मुनि इस आत्मभावना का नित्य उद्यत होकर आचरण करता है, वह थोड़े ही समय में समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।"(१२)। ___इनमें से दूसरी गाथा तिलोयपण्णत्ती में 'गयसित्थमूस' आदि गाथा के बाद जोड़ दी गयी। यथा
गयसित्थ-मूस-गब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णिय-आदा झायव्वो खयरहिदो जीवघणदेसो॥ ९ / ४५ ॥ जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण॥ ९ ॥ ४६॥ अनुवाद-"मोम से रहित मूसक के भीतरी आकार के समान, रत्नत्रयादि गुणों से युक्त, अविनश्वर, अखण्डप्रदेशी आत्मा का ध्यान करो।"(९/४५)।
"जो मुनि इस आत्मभावना का नित्य उद्यत होकर आचरण करता है, वह थोड़े ही समय में समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।"(९ / ४६)।
यहाँ हम देखते हैं कि समयसार की ऊपर उद्धृत 'णाणम्हि भावणा' इत्यादि गाथा में ही 'भावणा', 'भावणं आदे' (आदभावणं) शब्दों का प्रयोग हुआ है, तिलोयपण्णत्ती की 'गयसित्थमूस' आदि गाथा में नहीं। इसलिए 'जो आदभावणमिणं' यह दूसरी गाथा शब्दसाम्य-प्रमाण से समयसार की ‘णाणम्हि भावणा' आदि गाथा के ही साथ स्वभावतः सम्बद्ध सिद्ध होती है। 'गयसित्थमूस' आदि गाथा में 'भावणा' 'भावणं आदे' आदि शब्द न होने से, उसके बाद रखी गयी 'जो आदभावणमिणं' गाथा पूर्वगाथा से स्वभावतः सम्बद्ध सिद्ध नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि यह गाथा समयसार की ही है, इसे आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में आत्मसात् कर लिया
इसी प्रकार प्रवचनसार के द्वितीय अधिकार में निम्नलिखित तीन गाथाएँ क्रमशः कही गयी हैं
देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा॥ २/१०१॥ जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं॥ २/१०२॥ जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि॥ २/१०३॥
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