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अ०१० / प्र० १
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २५३ उसकी ऊपर निर्दिष्ट समयसार की गाथाओं के साथ रचनाशैली - गत एकरूपता भी है, अतः वह भी समयसार की मौलिक गाथा है । उसे भी तिलोयपण्णत्ती में प्रायः यथावत् आत्मसात् किया गया है। यथा
अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणप्पगो सदारुवी । वि अस्थिमज्झकिंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥ ९ / २८ ॥
अधोलिखित गाथा समयसार के जीवाधिकार में आये अप्रतिबुद्ध - प्रकरण से सम्बद्ध है, जो १९वीं गाथा (कम्मे णोकम्मम्हि ) से लेकर २६वीं गाथा (जदि जीवो ण सरीरं) तक चलता है
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥ १९ ॥
अनुवाद - " जब तक कर्म और नोकर्म में 'मैं कर्म और नोकर्म हूँ तथा ये कर्म और नोकर्म मेरे हैं' ऐसी बुद्धि होती है, तब तक आत्मा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) रहता है । "
समयसार की इस अप्रतिबुद्धलक्षण - प्रतिपादक गाथा को, उसके अन्तिम पाद में नवीन वाक्य रखकर तिलोयपण्णत्तिकार ने मोक्षविरोधिभाव - प्रतिपादक गाथा का रूप दे दिया है और अपने ग्रन्थ के सिद्धत्वहेतुभाव - प्रकरण में प्रतिष्ठित कर लिया है।
यथा
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कम्मे णोकम्मम्मि य अहमिदि अहयं च कम्म-णोकम्मं । जायद सा खलु बुद्धी सो हिंडइ गरुव-संसारं ॥ ९/४७॥
अनुवाद — " कर्म और नोकर्म में 'मैं कर्म और नोकर्म हूँ तथा कर्म और नोकर्म मेरे हैं' यह जो बुद्धि होती है, उससे जीव गहन संसार में भ्रमण करता है। " समयसार के तात्पर्यवृत्तिगत पाठ में 'जो सुयणाणं सव्वं' इस १०वीं गाथा के अनन्तर निम्नलिखित दो गाथाएँ दी गयी हैं
म्हि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य ।
ते पुण तिण्णिवि आदा तम्हा कुण भावणं आदे ॥ ११ ॥
जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ १२ ॥ अनुवाद - " सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भावना करनी चाहिए और क्योंकि वे तीनों आत्मा ही हैं, अतः आत्मा में भावना करो। " ( ११ ) ।
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