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२५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ अनुवाद-"जो यह जानता है कि धर्म (अधर्म, आकाश) आदि द्रव्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं तो एक मात्र उपयोग ही हूँ, उसे शुद्धात्मस्वरूप के ज्ञाता धर्मादि द्रव्यों से ममत्वरहित मानते हैं।"
इन गाथाओं के प्रतिपाद्य विषय एवं पूर्वापर गाथाओं के साथ प्रकरणगत सम्बन्ध से सिद्ध है कि ये मूलतः समयसार के जीवाधिकारगत जीवाजीवभिन्नत्व या जीवैकत्वप्रतिपादक प्रकरण की गाथाएँ हैं। इनका रचनासाम्य और अर्थसाम्य सिद्ध करता है कि ये एक ही रचनाकार की लेखनी से प्रसूत हुई हैं। इन गाथाओं का शाब्दिक साम्य एकदूसरे के साथ तो है ही, इसके अतिरिक्त समयसार की निम्नलिखित गाथाओं से भी है। यथा
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं। तं जिदमोहंसा परमट्टवियाणया विति॥ ३२॥ स.सा.। अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तं पि॥ ३८॥ स.सा.। अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो। तम्हि ठिओ तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि॥ ७३॥ स.सा.। -------------- जाणगभावो दु अहमिक्को ॥ १९८॥ स.सा.।
------------- जाणगभावो हु अहमिक्को॥ १९९॥ स.सा.। समयसार की उपर्युक्त ३६वीं एवं ३७वीं गाथाओं में अहमिक्को शब्द का प्रयोग हुआ है, वैसा ही समयसार की इन ३२, ३८, ७३, १९८ एवं १९९ क्रमांक की गाथाओं में भी हुआ है। इसी प्रकार ३६वीं एवं ३७ वी गाथाओं में समयस्स वियाणया विंति वाक्य प्रयुक्त हुआ है, वैसा ही समयसार की ऊपर उद्धृत ३२ वीं गाथा में तत्सदृश परमट्ठवियाणया विंति वाक्य प्रयुक्त हुआ है। समयसार की अन्य गाथाओं से यह शाब्दिक एकरूपता भी, जो रचनाशैलीगत एकरूपता है, सिद्ध करती है कि 'णत्थि मम को वि मोहो' गाथा मूलतः समयसार की है। इसके पूर्वार्ध को भी आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में यथावत् ग्रहण किया है। उदाहरण नीचे द्रष्टव्य है
णत्थि मम कोइ मोहो बुझो उवजोगमेवमहमेगो।
इह भावणाहि जुत्तो खवे दुट्ठ कम्माणि॥ ९/२९॥ उपर्युक्त 'अहमिक्को खलु सुद्धो' इत्यादि ३८ वीं गाथा भी समयसार के जीवाधिकारगत प्रतिबुद्ध-प्रकरण से सम्बद्ध है और अहमिक्को शब्द के प्रयोग से
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