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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २५१ इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्दकृत नियमसार में भी इसी प्रकार की अनेक गाथाएँ हैं। जैसे
णाहं बालो बुड्डो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥ ७९ ॥ णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं॥ ८०॥ ७७, ७८ और ८१ क्रमांकवाली गाथाएँ भी बिलकुल ऐसी ही हैं। इस रचनाशैली के साम्य से इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथा कुन्दकुन्दकृत ही है।
___ यतः जीव और देहादि की भिन्नता का ज्ञान कर पुद्गलादिपरधर्मरहित निज शुद्धात्मा का ध्यान करने से कर्मक्षय होता है और जीव तथा पौद्गलिक देहादि की भिन्नता का प्रतिपादन 'णाहं देहो ण मणो' इत्यादि गाथा के पूर्वार्ध से भी संक्षेप में हो जाता है, अतः तिलोयपण्णत्तिकार ने गाथा के पूर्वार्ध के साथ अपने अभिप्राय का प्रतिपादक उत्तरार्ध जोड़कर गाथा को संक्षेप में सिद्धत्व के कारणभूत भाव का प्ररूपक बना दिया है। यथा
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं॥ ९/३२ ॥ ति.प.। अनुवाद-"न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ , ऐसा जो भाता है (चिन्तन करता है), वह शाश्वत स्थान (मोक्ष) पाता है।"
निम्नलिखित गाथाएँ कुन्दकुन्दरचित समयसार के जीवाधिकार की हैं, जिसमें समस्त परद्रव्यों और परभावों से जीव की भिन्नता दर्शाते हुए उसके एकत्व का प्रतिपादन किया गया है
णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को।
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति॥ ३६॥ स.सा.। अनुवाद-"जो यह जानता है कि मोह से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं तो एक मात्र उपयोग ही हूँ, उसे शुद्धात्मस्वरूप के ज्ञायक पुरुष मोह से ममत्वरहित मानते हैं।"
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति॥ ३७॥ स.सा.।
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