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________________ २५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र० १ को वह बहुत भाया। उसके प्ररूपण के लिए इनसे अच्छे शब्दों का प्रयोग और नहीं हो सकता था, इसलिए उन्होंने आत्मध्यान के प्ररूपणार्थं कुन्दकुन्द की गाथाएँ ज्यों की त्यों अपना लीं और कहीं-कहीं उपयुक्त स्थान में उपर्युक्त शब्दों का प्रतिस्थापन कर उन्हें अपने अभीष्ट विषय का प्रतिपादक बना लिया । प्राचीनकाल में यह साहित्यिक चोरी नहीं कहलाती थी । अस्तेय - महाव्रतधारी मुनियों को न ख्यातिलाभ की चाह थी, न अर्थलाभ की। उन्हें केवल प्रभावक शब्दों में जिनोपदेश के प्रतिपादन की चाह थी । इसलिए अपने अभीष्ट जिनोपदेश के प्रतिपादनार्थ जहाँ उन्हें पूर्वरचित सुन्दर गाथाएँ उपलब्ध हो जाती थीं, वहाँ से उन्हें निःसंकोच ग्रहण कर लेते थे, इससे उनकी पुनरावृत्ति का निरर्थक परिश्रम और समय का अपव्यय 1 बच जाता था । इसी प्रकार प्रवचनसार की 'जो खविदमोहकलुसो' इत्यादि गाथा के अन्तिम चरण सो अप्पाणं हवदि झादा के स्थान में भी एक बार सो पावइ णिव्वुदिं सोक्खं ( वह मोक्षसुख प्राप्त करता है) तथा दूसरी बार सो मुच्चइ कम्मणिगलेहिं (वह कर्मबन्धनों से छूट जाता है) वाक्य रखकर उसे मोक्षप्राप्ति के हेतुभूत भाव का प्ररूपक बना दिया है । यथा जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवट्टिदो सहावे सो पावइ णिव्वुदिं सोक्खं ॥ ९/२३ ॥ ति.प. । जो खविदमोहकम्मो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवद्विदो सहावे सो मुच्चइ कम्मणिगलेहिं ॥ ९ / ४८ ॥ ति.प. । प्रवचनसार के द्वितीय अधिकार की निम्नलिखित ६८ वीं गाथा में देहादि परद्रव्य के साथ आत्मा के सभी प्रकार के सम्बन्धों का निषेध किया गया है णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता कारणं तेसिं । व कत्तीणं ॥ २/६८॥ प्र.सा.। अनुवाद - " न मैं देह हूँ, न मन, न वाणी, न उनका कारण (पुद्गलरूप उपादान), न कर्त्ता (निमित्त), न कारयिता और न उनके करनेवाले पुद्गलों का अनुमोदक । " Jain Education International उक्त अधिकार की क्र. ६९ से लेकर ७९ तक की ११ गाथाओं में विभिन्न युक्तियों से जीव और पुद्गल की भिन्नता का उपपादन कर 'अरसमरूवमगंधं' इस ८०वीं गाथा में जीव के शुद्ध (पौद्गलिक धर्मों से रहित) स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकरण - सम्बद्धता से सिद्ध है कि 'णाहं देहो ण मणो' गाथा मूलतः प्रवचनसार की है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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