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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २४९ प्रवचनसार में यह गाथा 'णाहं होमि परेसिं' गाथा से दो गाथाओं के बाद निबद्ध है, किन्तु तिलोयपण्णत्तिकार ने उपर्युक्त प्रयोजन से इसे ठीक उसके बाद उत्तरार्धपरिवर्तन के साथ इस प्रकार रख दिया है णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादो॥९/३६॥ति.प.। जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पयं विसुद्धप्पा। अणुवममपारमदिसयसोक्खं पावेदि सो जीओ॥९/३७॥ति.प.। इसके अतिरिक्त ‘णाहं होमि परेसिं' गाथा के सो अप्पाणं हवदि झादा इस अन्तिम चरण के स्थान में सो मुच्चइ अट्ठकम्मेहिं (वह आठ कर्मों से मुक्त हो जाता है) वाक्य रखकर भी सिद्धत्वहेतुभाव को व्यक्त करनेवाली एक नयी गाथा रच दी है। देखिए णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चई अट्ठकम्मेहिं॥ ९/३०॥ ति.प.। प्रवचनसार में लगभग ऐसी ही एक गाथा और है णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि। इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो॥ ३/४॥ प्र.सा.। अनुवाद-"न मैं पर का हूँ, न पर मेरे हैं, न इस लोक में मेरा कुछ है, ऐसा निश्चित कर जितेन्द्रिय आत्मा यथाजातरूपधर (नग्न) हो जाता है।" इस गाथा के उत्तरार्ध को पूर्णतः परिवर्तित कर इसे भी सिद्धत्वहेतुभाव का प्ररूपक बनाकर तिलोयपण्णत्ती में रख दिया गया है। यथा णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं ॥ ९/३८॥ ति.प.। अनुवाद-"न मैं पर का हूँ, न पर मेरे हैं, न इस लोक में मेरा कुछ है," ऐसा जो भाता (चिन्तन करता) है, वह सर्वकल्याण को पा लेता है।" इस प्रकार प्रवचनसार की इन गाथाओं में यतिवृषभाचार्य ने स्वाभीष्ट विभिन्न शब्दों का प्रयोग कर उनमें वर्णित स्वपरभेद-विज्ञान एवं आत्मध्यान की विभिन्न प्रकार से मोक्षहेतुता प्रकट की है। परद्रव्यों से स्वात्मा की भिन्नता का दर्शन और चिन्तन ही वह आत्मध्यान है, जिससे कर्मों का क्षय होता है। इस आत्मध्यान का प्ररूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में बड़े प्रभावक शब्दों में किया है। यतिवृषभाचार्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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