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________________ २४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ में किये जाने वाले स्वात्मचिन्तन के प्रकार का वर्णन है। उन गाथाओं के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध अथवा किसी पाद को बदलकर ग्रन्थकार ने कुछ नयी गाथाएँ भी रची हैं। इस तरह 'सिद्धलोयपण्णत्ती' नामक महाधिकार के 'सिद्धत्वहेतुभाव' नामक अन्तराधिकार की रचना प्रायः कुन्दकुन्द की गाथाओं से की गई हैं। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा॥ २/९९ ॥ प्र.सा.। अनुवाद-"न मैं पर का हूँ, न पर मेरे हैं, मैं तो एकमात्र ज्ञान हूँ, ऐसा जो ध्यान में चिन्तन करता है, वह आत्मा का ध्याता होता है।" जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता। समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥ २/१०४॥ प्र.सा.। अनुवाद-"जो मोहमल का विनाश कर, विषयों से विरक्त हो और मन को रोककर स्वभाव में स्थित होता है, वह आत्मा का ध्याता होता है।" प्रवचनसार की इन गाथाओं में 'सो अप्पाणं हवदि झादा' इस वाक्य की पुनरावृत्ति से सिद्ध है कि ये गाथाएँ आत्मध्याता के स्वरूप-निरूपक प्रकरण से सम्बद्ध हैं। प्रवचनसार के द्वितीय अधिकार में क्रमांक ९९ से लेकर १०४ तक छह गाथाओं में आत्मध्याता के स्वरूप का निरूपण किया गया है। उनमें 'णाहं होमि परेसिं' इस गाथा (९९) से निरूपण शुरू होता है और 'जो खविदमोहकलुसो' इस गाथा (१०४) पर समाप्त होता है। प्रवचनसार के आत्मध्याता-प्रकरण से सम्बद्ध होने के कारण निश्चित होता है कि ये दोनों गाथाएँ मूलतः प्रवचनसार की हैं। तिलोयपण्णत्तिकार ने ‘णाहं होमि परेसिं' इस गाथा को ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया है और इसके बाद की दो गाथाएँ छोड़कर 'जो एवं जाणित्ता' (प्र.सा. २/१०२) इत्यादि गाथा को उसके उत्तरार्ध में परिवर्तन कर साथ में रख दिया है। इस तरह ये दोनों गाथाएँ संक्षेप में सिद्धत्व के हेतुभूत भाव की प्रतिपादक बन गयी हैं। प्रवचनसार की 'जो एवं जाणित्ता' गाथा इस प्रकार है जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं॥ २/१०२॥ प्र.सा.। अनुवाद-"जो श्रावक और श्रमण निजात्मा को (एक उपयोगलक्षण आत्मा ही ध्रुव है) ऐसा जानकर परमात्मा का ध्यान करता है, वह विशुद्ध होता हुआ मोहग्रन्थि (मिथ्यात्व) का विनाश करता है।" Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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