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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २४७ "तिलोयपण्णत्ती के वर्तमान संस्करणों में भी कुछ ऐसी गाथाएँ समाविष्ट हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। इस समता से भी उनका समय कुन्दकुन्द के पश्चात् आता है। "विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभ के पूर्व यदि महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभ को कर्मप्रकृति का ज्ञान किससे प्राप्त होता? अतः यतिवृषभ का स्थिति काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें कर्मप्रकृतिप्राभृत का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो। दूसरी बात यह है कि षट्खण्डागम और कषायप्राभृत में अनेक तथ्यों में मतभेद है और इस मतभेद को तन्त्रान्तर कहा है। धवला और जयधवला में भूतबलि और यतिवृषभ के मतभेद की चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभ को भूतबलि से बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।" (ती.म.आ.प. / खं.२ / पृ. ८४-८७)। __इस प्रकार आचार्य यतिवृषभ का समय ईसा की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित होता है। ५.२. तिलोयपण्णत्ती में कुन्दकुन्द की गाथाओं के उदाहरण तिलोयपण्णत्ती में नौ महाधिकार हैं, जिनमें अन्तिम महाधिकार का नाम सिद्धलोयपण्णत्ती (सिद्धलोकप्रज्ञप्ति) है। इसके भीतर पाँच अन्तराधिकार रखे गये हैं-१. सिद्धों की निवासभूमि, २. संख्या, ३. अवगाहना, ४. सौख्य और ५. सिद्धत्वहेतु-भाव। ६७ आचार्य यतिवृषभ ने सिद्धत्व के हेतुभूत भावों का वर्णन करने के लिए प्रस्तावना के रूप में निम्नलिखित गाथा स्वयं रची है जह चिरसंचिदमिंधणमणलो पवणाहदो लहुं दहइ। __तह कम्मिंधणमहियं खणेण झाणाणलो दहइ॥ ९/२२॥ ति.प.। अनुवाद-"जैसे चिरसञ्चित ईंधन को पवन से आहत अग्नि शीघ्र जला देती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि कर्मरूपी प्रचुर ईंधन को क्षणभर में भस्म कर देती है।" इसके पश्चात् तिलोयपण्णत्तिकार ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की उन विभिन्न गाथाओं को लाकर रख दिया है, जिनमें स्वभाव-स्थिति, शुद्धात्मध्यान, शुद्धोपयोग, स्वात्मानुचरण आदि नामों से जानी जाने वाली मोक्ष की हेतुभूत शुभाशुभभाव-निवृत्ति एवं उस अवस्था - ६७. उम्मग्ग-संठियाणं भव्वाणं मोक्खमग्गदेसयरं। पणमिय संतिजिणेसं वोच्छामो सिद्धलोयपण्णत्ती॥ ९/१॥ सिद्धाण णिवासखिदी संखा ओगाहणाणि सोक्खाई। सिद्धत्तहेदुभावो सिद्धजगे पंच अहियारा॥ ९/२॥ तिलोयपण्णत्ती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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