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२४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
(४५८ ई०) में रचित लोकविभाग नामक ग्रन्थ उपलब्ध है। पं० जुगलकिशोर मुख्तार आदि विद्वानों का कथन है कि यतिवृषभ ने इसी का उल्लेख किया है। इस पर डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री कहते हैं- " यतिवृषभ के समक्ष यही 'लोकविभाग' था, इसका कोई निश्चय नहीं । लोकानुयोग के ग्रन्थ प्राचीन हैं और संभवतः यतिवृषभ के समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा ।" (ती.म.आ.प./ खं. २ / पृ. ८३ ) । वे आगे लिखते हैं- " कुछ लोगों ने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दी के लोकविभाग का रचनाकाल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी है । अतः यतिवृषभ का समय उसके बाद होना चाहिए । पर इस सम्बन्ध में हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभ का समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है । " ( ती. म. आ. प./ खं. २ / पृ. ८४ ) । इसकी पुष्टि में उन्होंने निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं
‘‘आचार्य यतिवृषभ ने अपने तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ में भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओं के काल का उल्लेख किया है । अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है । विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि-क्षमा श्रमण ने अपने विशेषावश्यकभाष्य में चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ के आदेशकषाय-विषयक मत का उल्लेख किया है और विशेषावश्यकभाष्य की रचना शक संवत् ५३१ (वि० सं० ६६६) में होने का उल्लेख मिलता है । अतः यतिवृषभका समय वि० सं० ६६६ के पश्चात् नहीं हो सकता ।
"आचार्य यतिवृषभ पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में उनके एक मत विशेष का उल्लेख किया है- " अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ताः । ६४ अर्थात् जिन आचार्यों के मत से सासादनगुणस्थानवर्ती जीव एक इन्द्रिय जीवों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा १२ / १४ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियम से देवों में उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभ का ही मत है । लब्धिसार- क्षपणासार के कर्त्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में कहा है
जदि मरदि सासणो सो णिरय-तिरिक्खं परं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवणेण ॥ ३४९ ॥
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'अर्थात् आचार्य यतिवृषभ के वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है, तो नियम से देव होता है।
६४. सर्वार्थसिद्धि / भारतीय ज्ञानपीठ / १/८/ पा.टि./पृ. ३७ तथा सर्वार्थसिद्धि / भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् / सन् १९९५ / १ / ८/ पृ.२२ ।
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