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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २४५ "आचार्य यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों में अपने इस मत को निम्न प्रकार व्यक्त किया है "आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसगदिं वा गंतुं। णियमा देवगदिं गच्छदि।" (कसायपाहुड/ अधिकार१४ / सूत्र ५४४)। __ "इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि० सं० ५२६ में द्रविडसंघ की स्थापना की है। अत एव यतिवृषभ का समय वि० सं० ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है। "कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ति के समय का निर्णय हो जाने पर यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि यतिवृषभ का समय आर्यमंक्षु और नागहस्ति से कुछ ही बाद है। "आधुनिक विचारकों ने तिलोयपण्णती के कर्ता यतिवृषभ के समय पर पूर्णतया विचार किया है। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने यतिवृषभ का समय लगभग पाँचवी शताब्दी माना है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने भी प्रायः इसी समय को स्वीकार किया है। पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने वर्तमान तिलोयपण्णत्ती के संस्करण का अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि० की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यतिवृषभ का समय अन्तःसाक्ष्य के आधार पर नागहस्ति के थोड़े अनन्तर सिद्ध होता है। यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती के चतुर्थ अधिकार में बताया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण होने के पश्चात् ३ वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के व्यतीत होने पर पञ्चम काल नामक दुषम काल का प्रवेश होता है। इस काल में वीर नि० सं० ६८३ तक केवली, श्रुतकेवली और पूर्वधारियों की परम्परा चलती है। वीर-निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् शक राजा उत्पन्न होता है। शकों का राज्यकाल २४२ वर्ष 'बतलाया है।६५ इसके पश्चात् यतिवृषभ ने गुप्तों के राज्यकाल का उल्लेख किया है। और इनका राज्यकाल २५५ वर्ष बतलाया है। इसमें ४२ वर्ष समय चतुर्मुख कल्की का भी है। इस प्रकरण के आगेवाली गाथाओं में आन्ध्र, गुप्त आदि नृपतियों के वंशों और राज्यवर्षों का निर्देश किया है। इस निर्देश पर से डा० ज्योतिप्रसाद जी ने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है "आचार्य यतिवृषभ ई० सन् ४७८, ४८३ या ई० सन् ५०० में वर्तमान रहते, जैसा कि अन्य विद्वानों ने माना है, तो वे गुप्तवंश की ई० सन् ४३१ में समाप्ति की चर्चा नहीं करते। उस समय (ई० सन् ४१४-४५५) कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल ६५. णिव्वाणगदे वीरे चउसदइगिसट्ठिवासविच्छेदे। जादो य सगणरिंदो रज्जं वंसस्स दुसयबादाला॥ ४/१५१५ / तिलोयपण्णत्ती॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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