SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती के अनेक पद्यों में संगाइणी, लोकविनिश्चय तथा लोकविभाग नामक ग्रन्थों का उल्लेख पाया जाता है।५७ पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार का कथन है कि यह लोकविभाग ग्रन्थ वही है, जिसकी रचना आचार्य सर्वनन्दी ने कांची के राजा सिंहवर्मा के राज्य में शकसंवत् ३८० (४५८ ई०) में की थी। इसके अतिरिक्त तिलोयपण्णत्ती में भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर १००० वर्ष (४७३. ई०)५९ तक की अवधि में हुए राजाओं के काल का निर्देश किया गया है। इन दो तथ्यों के आधार पर मुख्तार जी ने यतिवृषभ का स्थितिकाल पाँचवीं शताब्दी ई० माना है।६० पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं डॉ० ए० एन० उपाध्ये का भी यही मत है। किन्तु पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य ने तिलोयपण्णत्ती के कुछ गद्यांशों को धवलाटीका से गृहीत मानकर तथा अन्य कतिपय कारणों से वर्तमान तिलोयपण्णत्ती को नौवीं शताब्दी ई० में वीरसेन स्वामी के शिष्य जिनसेन द्वारा रचित बतलाया है।६१ माननीय पं० फूलचन्द्र जी के मत का निरसन पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने पुरातन-जैनवाक्य-सूची की प्रस्तावना में विस्तार से किया है। उन्होंने सोदाहरण सिद्ध किया है कि तिलोयपण्णत्ती और धवलाटीका में जो गद्यांश एक जैसे हैं, उनमें से कुछ तिलोयपण्णत्ती से धवला में ग्रहण किये गये हैं और कुछ धवला से तिलोयपण्णत्ती में आठवीं शताब्दी ई० के बाद प्रक्षिप्त हुए हैं। तिलोयपण्णत्ती का शेषभाग मौलिक है। मुख्तार जी लिखते हैं कि "कुछ प्रक्षिप्त अंशों के कारण किसी ग्रन्थ को दूसरा ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता।"६२ तथा तिलोयपण्णत्ती के ईसा की पाँचवी शताब्दी में रचित होने की मुख्तार जी आदि विद्वानों की मान्यता का निरसन युक्ति-प्रमाण-पूर्वक ज्योतिषाचार्य डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ने किया है। उनका हेतुवाद नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। वे लिखते हैं "आचार्य वीरसेन के उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकार का मत कसायपाहुड और षट्खण्डागम के मत के समान ही प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है।६३ वि० की ग्यारहवीं ५७. तिलोयपण्णत्ती / महाधिकार ४ / गा.२४७४ तथा महाधिकार ९ / गा.१० । ५८. पुरातन-जैनवाक्य-सूची/प्रस्तावना / प.३१।। ५९. तिलोयपण्णत्ती / महाधिकार ४/ गा.१५१५-१५२७ । ६०. पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्तावना/प्र.३३-३४। ६१. जैनसिद्धांतभास्कर / भाग ११/ किरण १ / जून १९४४ । ६२. पुरातन-जैनवाक्य-सूची / प्रस्तावना / पृ. ५४-५७। ६३. पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने भी लिखा है कि "वीरसेन ने यतिवृषभ को एक बहुत प्रामाणिक आचार्य के रूप में उल्लिखित किया है और एक प्रसंग पर रागद्वेषमोह के अभाव को उनकी वचन-प्रमाणता में कारण बतलाया है-कुदो णव्वदे? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy