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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २४१ गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुईं उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को अच्छी तरह सुनकर उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की।"
वीरसेन स्वामी के इन वचनों से ज्ञात होता है कि यतिवृषभ, आर्य मंक्षु और नागहस्ती के समकालीन थे तथा ये दोनों आचार्य, गुणधराचार्य के पश्चात् कई आचार्यों के हो जाने के बाद हुए थे।
श्वेताम्बर-परम्परा में भी आर्यमंगु और आर्यनागहस्ती के नाम उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे समकालीन नहीं थे। उनके कालवैषम्य पर प्रकाश डालते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं
___ "नन्दिसूत्र में आर्यमंगु के पश्चात् आर्यनन्दिल को स्मरण किया गया है और उनके पश्चात् नागहस्ती को। नन्दिसूत्र की चूर्णि और हरिभद्र की नन्दिवृत्ति में भी यही क्रम पाया जाता है। तथा दोनों में आर्यमंगु का शिष्य आर्यनन्दिल को और आर्यनन्दिल का शिष्य नागहस्ती को बतलाया है। इससे नागहस्ती आर्यमंगु के प्रशिष्य अवगत होते हैं। किन्तु मुनि कल्याणविजय जी का कहना है कि आर्यमंगु और आर्यनन्दिल के बीच में चार आचार्य और हो गये हैं और नन्दिसूत्र में उनसे सम्बद्ध दो गाथाएँ छूट गई हैं, जो अन्यत्र मिलती हैं। अपने इस कथन के समर्थन में उनका कहना है कि आर्यमंगु का युगप्रधानत्व वीर नि० ४५१ से ४७० तक था। परन्तु आर्यनन्दिल आर्यरक्षित के पश्चात् हुए थे और आर्यरक्षित का स्वर्गवास वी० नि० सं० ५९७ में हुआ था। इसलिए आर्यनन्दिल वी० नि० सं० ५९७ के पश्चात् हुए थे। इस तरह मुनि जी की कालगणना के अनुसार आर्यमंगु और आर्यनन्दिल के मध्य में १२७ वर्ष का अन्तराल है। और उसमें आर्यनन्दिल का समय और जोड़ देने पर आर्यमंगु और नागहस्ती के बीच में १५० वर्ष के लगभग अन्तर बैठता है। मुनि कल्याणविजय जी के अनुसार आर्यमंगु और नागहस्ती समकालीन नहीं हो सकते।"(जै.सा.इ./भा.१ / पृ.१३-१४)।
यतः आर्यमंगु का आचार्यकाल वी० नि० सं० ४५१ से ४७० तक अर्थात् ई० पू० ७६ से ई० पू० ५७ तक था तथा आर्यनागहस्ती ने उनसे १५० वर्ष बाद आचार्य पद ग्रहण किया था, इसलिए वे ईसोत्तर ९३ के लगभग विद्यमान थे। इस प्रकार चूँकि वे दोनों समकालीन नहीं थे, इसलिए यतिवृषभ श्वेताम्बरपरम्परा के आर्यमंगु और नागहस्ती के अन्तेवासी नहीं हो सकते, न ही श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसा उल्लेख है कि यतिवृषभ ने उनके पादमूल में बैठकर कसायपाहुड का श्रवण किया था। अतः वीरसेन स्वामी द्वारा उल्लिखित आर्यमंक्षु और नागहस्ती उनसे भिन्न थे। वे दिगम्बर-परम्परा में ही उत्पन्न हुए थे। (देखिये, आगे अध्याय १२/ प्रकरण ३ / शीर्षक ४)।
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