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२४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ ___ यतः शिलालेखों में उमास्वाति को कुन्दकुन्दान्वय में उद्भूत बतलाया गया है और पट्टावलियों में कुन्दकुन्द के बाद उनका नाम आया है, इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द उमास्वाति से पूर्ववर्ती थे।
द्वि. श. ई. की 'तिलोयपण्णत्ती' में कुन्दकुन्द की गाथाएँ ५.१. तिलोयपण्णत्ती का रचनाकाल
___ आठवीं शताब्दी ई० के वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में तिलोयपण्णत्तिकार यतिवृषभ के मतों का उल्लेख किया है और तिलोयपण्णत्ती से अनेक उद्धरण भी दिये हैं।५६ यतिवृषभाचार्य ने कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों की भी रचना की है। वीरसेन स्वामी ने जयधवला में लिखा है
__ "तदो अंगपुव्वाणमेगदेसो चेव आइरियपरम्पराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो। पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचमपुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुड-महण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छल-परवसीकय-हियएण एवं पेजदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदि-सदमेत्तगाहाहि उवसंघारिदं। पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अजमंखु-णागहत्थीणं पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसद-गाहाणं गुणहर-मुहकमल-विणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं।"(ज.ध./क.पा.भा.१ / गा.१/ अनु. ६८/ पृ.७९-८०)।
अनुवाद-"तत्पश्चात् अंगों और पूर्वो का एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुनः ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवे पूर्व की दसवीं वस्तुसम्बन्धी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासागर के पार को प्राप्त श्री गुणधर-भट्टारक ने जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था, सोलह हजार पदप्रमाण इस पेज्जदोसपाहुड का ग्रन्थविच्छेद के भय से, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया। पुनः वे ही सूत्रगाथाएँ आचार्य-परम्परा से आती हुईं आर्यमंक्ष और नागहस्ती को प्राप्त हुईं। पुनः उन दोनों आचार्यों के पादमूल में बैठकर प्रवचनवत्सल यतिवृषभ-भट्टारक ने
५६. क - "दुगुण-दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे त्ति तिलोयपण्णत्तिसुत्तादो य णव्वदे।"
धवला-टीका / षट्खण्डागम / पु.३ / १,२,४ / पृ.३५ । ख - "तं वक्खाणाभासमिदि कुदो णव्वदे? जोइसियभागहार-सुत्तादो चंदाइच्चबिंबपमाण
परूवयतिलोयपण्णत्तिसुत्तादो च।" धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु.३/१,२,४/पृ.३६ ।
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