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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २३९ क्वचित् अर्थरूप सामग्री भी श्वेताम्बर-आगमों में उपलब्ध नहीं है, जब कि दिगम्बरग्रन्थों में उपलब्ध है। यह इस बात का प्रबल प्रमाण है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त शब्द और अर्थरूप सामग्री तथा संरचनाशैली का संग्रह कुन्दकुन्दसाहित्य से किया है। अतः पूर्वोक्त श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द ने तत्त्वार्थसूत्रकार का अनुकरण किया है। इस प्रकार सिद्ध है कि कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्ववर्ती हैं। यतः उमास्वाति का स्थितिकाल ईसा की द्वितीय शताब्दी है, अतः कुन्दकुन्द ईसा की द्वितीय शताब्दी से पूर्व हुए थे, यह स्वतः सिद्ध होता है। ४.४. उमास्वाति कुन्दकुन्दान्वय के आचार्य दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी की नन्दिसंघीय पट्टावली में उमास्वामी (उमास्वाति) का नाम कुन्दकुन्द के बाद आया है। प्रथम शुभचन्द्रकृत नन्दिसंघ की गुर्वावली में भी वह कुन्दकुन्द के ही पश्चात् है५३ तथा अनेक शिलालेखों और प्रशस्तियों में उमास्वामी या उमास्वाति को कुन्दकुन्दान्वय में उत्पन्न बतलाया गया है।५४ सन् १९२९ में पं० सुखलाल जी संघवी के पत्र के उत्तर में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने लिखा था "कुन्दकुन्द तथा उमास्वाति के सम्बन्धवाले कितने ही शिलालेख तथा प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु वे सब इस समय मेरे सामने नहीं हैं। हाँ, श्रवणबेल्गोल के जैन शिलालेखों का संग्रह इस समय मेरे सामने है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला का २८ वाँ ग्रन्थ है। इसमें ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०५ और १०८ नम्बर के ७ शिलालेख दोनों के उल्लेख तथा सम्बन्ध को लिए हुए हैं। पहले पाँच लेखों में 'तदन्वये' पद के द्वारा और नं० १०८ में 'वंशे तदीये' ‘पदों के द्वारा उमास्वाति को कुन्दकुन्द के वंश में लिखा है। इनमें सबसे पुराना शिलालेख नं० ४७ है, जो शक सं. १०३७ का लिखा हुआ है। --- मैं अभी तक उमास्वाति को कुन्दकुन्द का निकटान्वयी मानता हूँ , शिष्य नहीं। हो सकता है कि वे कुन्दकुन्द के प्रशिष्य रहे हों।" ५५ ५३. देखिए , अष्टम अध्याय के अन्त में विस्तृत-सन्दर्भ के अन्तर्गत गुर्वावली का मूलपाठ। ५४. श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र-सञ्जातसुचारणद्धिः॥ ४॥ अभूदुमास्वाति-मुनीश्वरोऽसावाचार्य-शब्दोत्तर-गद्धपिच्छः। तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ ५॥ जै.शि.सं./ मा.च/ भा.१/ ले. क्र.४७। ५५. अनेकान्त'/ वर्ष १/ किरण ६-७ / वीर नि.सं. २४५६ / पृष्ठ ४०५-४०६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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