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________________ २३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ अनुवाद-"वास्तविक भावों के सद्भाव का उपदेश देने तथा जिस रूप से उन्हें जाना जाता है, उसी रूप से उनका श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहा गया है।" इस गाथा में न तो तत्त्वार्थ शब्द उपलब्ध होता है, न तत्त्व, न अर्थ, जब कि कुन्दकुन्द के नियमसार की इन दो गाथाओं में तत्त्वार्थ शब्द पाया जाता है तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं। आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था॥ ८॥ अनुवाद-"भगवान् के मुख से निकले हुए पूर्वापरदोष-रहित शुद्ध बचन को आगम कहा गया है। उस आगम से तत्त्वार्थों का कथन हुआ है।" जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इति भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता॥ ९॥ अनुवाद-"जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश, इन्हें तत्त्वार्थ कहा गया है। ये नाना गुण-पर्यायों से संयुक्त हैं।" इस प्रमाण से सिद्ध हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने सात तत्त्वों के साथ तत्त्वार्थ शब्द का संग्रह भी कुन्दकुन्द के साहित्य से किया है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि तत्त्वार्थसूत्र एक संग्रहग्रन्थ है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार उमास्वाति ने भी यह स्वीकार किया है। ५१ उपाध्याय आत्माराम जी ने प्रसिद्ध श्वेताम्बर वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्रसूरि के सिद्धहेमशब्दानुशासन की स्वोपज्ञवृत्ति से निम्नलिखित शब्द उद्धृत किये हैं-"उपोमास्वातिं संगृहीतारः" (२ / २ / ३९) अर्थात् उमास्वाति संग्रहकर्ताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसके आगे उपाध्याय जी लिखते हैं-"आगमों से संग्रह किये जाने से यह ग्रन्थ (तत्त्वार्थसूत्र) भी संग्रहग्रन्थ माना गया है। --- कहीं पर तो शब्दशः संग्रह है, अर्थात् आगम के शब्दों को संस्कृतरूप दे दिया गया है और कहीं पर अर्थसंग्रह है, अर्थात् आगम के अर्थ को लक्ष्य में रखकर सूत्र की रचना की गयी है। कहीं-कहीं पर आगम में आये हुए विस्तृत विषयों को संक्षेपरूप से वर्णन किया गया है।"५२ इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम देखते हैं कि ऊपर उद्धृत सूत्रों की शब्दरूप सामग्री तथा ५१. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं सङ्ग्रहं लघुग्रन्थम्। वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य॥ २२॥ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / सम्बन्धकारिका। ५२. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / प्रस्तावना / पृ.(छ)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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