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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २३७ मूलाचार में जीव के उक्त भेदसमूह को जीवसमास और जीवस्थान ६ संज्ञा दी गई है। कुन्दकुन्दकृत भावपाहुड और पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि में जीवसमास शब्द षट्खण्डागम की तरह गुणस्थान के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
जीवनिकाय के समान कुन्दकुन्द ने देवों के चार भेदों को भी निकाय शब्द से अभिहित किया है, यथा-देवा चउण्णिकाया (पं.का.११८)। श्वेताम्बर-आगमों में न तो जीवों के उक्त चौदह भेदों के लिए 'निकाय' शब्द का प्रयोग हुआ है, न देवों के चार भेदों के लिए। उपाध्याय आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र के 'देवाश्चतुर्णिकायाः' (४/१) सूत्र को व्याख्याप्रज्ञप्ति के "चउव्विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा भवणवई वाणमंतर जोइस वेमाणिया" (शतक २, उद्देश्य ७) इस वाक्य पर आश्रित बतलाया है।९ किन्तु इसमें 'निकाय' शब्द अनुपलब्ध है। इससे सिद्ध होता है कि 'श्रेणी' या 'प्रकार' के अर्थ में 'निकाय' शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द की अपनी विशेषता है। अतः तत्त्वार्थसूत्रकार ने कुन्दकुन्दकृत पञ्चास्तिकाय (गा.११८) के देवा चउण्णिकाया इस गाथांश को ही संस्कृत में रूपान्तरित करके तत्त्वार्थसूत्र में संगृहीत कर लिया है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि दोनों में शब्दशः साम्य है।
५. तत्त्वार्थसूत्र के नामकरण में तथा 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' सूत्र में जिस तत्त्वार्थ शब्द का प्रयोग हुआ है, वह भी कुन्दकुन्द के ही साहित्य में सर्वप्रथम उपलब्ध होता है। यह तत्त्व और अर्थ, इन दो शब्दों के योग से बना हुआ विशिष्ट शब्द है, जो तत्त्वसहित पदार्थ (तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ:-स.सि.१/२) अथवा तत्त्वरूप पदार्थ (तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः-स.सि.१/२) का वाचक है। श्वेताम्बर-आगमों में यह उपलब्ध नहीं है। उपाध्याय आत्माराम जी ने 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' सूत्र का आगमिक आधार उत्तराध्ययन की निम्नलिखित गाथा को बतलाया है
तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं।
भावेणं सद्दहन्तस्स सम्मत्तं तं वियाहियं॥५० ४६. क-एइंदियादि पाणा चोद्दस दु हवंति जीवठाणाणि ॥ ११८९ ॥ मूलाचार। ख-तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसाणु जाण दो दो दु।
मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि ॥ १२०१॥ मूलाचार। ४७. सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाई॥ ९७॥ भावपाहुड। ४८. "जीवाश्चतुर्दशसु गुणस्थानेषु व्यवस्थिताः। --- एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थं चतुर्दश
मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि।" सर्वार्थसिद्धि १/८/ अनुच्छेद ३४ / भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन। ४९. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम समन्वय ४/१/ पृ.९५ । ५०. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय १/२।।
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