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२३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१ यह मत समीचीन नहीं है, क्योंकि पुण्य-पाप को आस्रव-बन्ध में शामिल कर सात तत्त्वों की संक्षिप्त कथनपद्धति तत्त्वार्थसूत्रकार की देन नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्परा में उनके पूर्व से चली आ रही थी, जिसका उल्लेख कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में किया है। यह और बात है कि स्पष्टीकरण के लिए कुन्दकुन्द ने सर्वत्र नव पदार्थों का ही वर्णन किया है (स.सा.१३ / पं.का.१०८)। तत्त्वार्थसूत्रकार को नौ पदार्थों के स्थान में सात तत्त्वों के कथन की प्रेरणा भावपाहुड से ही मिली है। यह कुन्दकुन्द के तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्ववर्ती होने का प्रमाण है। कुन्दकुन्द ने कहीं भी सात तत्त्वों का अलग-अलग नाम लेकर वर्णन नहीं किया, इसलिए कुन्दकुन्द के द्वारा तत्त्वार्थसूत्रकार का अनुकरण किये जाने की कल्पना नहीं की जा सकती।
४. कुन्दकुन्द ने जीवों के एकेन्द्रियादि चौदह भेदों को अभिहित करने के लिए जीवट्ठाण (जीवस्थान) और जीवनिकाय ३ शब्दों का प्रयोग किया है। पूर्ववर्ती षट्खण्डागम में इन्हें किसी भी शब्द से अभिहित नहीं किया गया है, केवल इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा चौदह भेदों के नाम बतला दिये गये हैं। ४ षट्खण्डागम में जीवसमास संज्ञा का प्रयोग गुणस्थान के अर्थ में किया गया है। (ष.खं./ पु.१/१,१,२)। गुण और ट्ठाण (स्थान)४५ शब्द भी इसी अर्थ में व्यवहत हुए हैं। कुन्दकुन्द से उत्तरवर्ती ४३. क- एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं॥ ६६॥ समयसार। ख- एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया।
मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया॥ ११२॥ पञ्चास्तिकाय। ४४. षट्खण्डागम/पु.१/१,१,३३-३५ । षटखण्डागम के प्रथम खण्ड का 'जीवट्ठाण' नाम टीकाकार
वीरसेनस्वामी-कत है. षटखण्डागमकार-कत नहीं। वह भी गणस्थानों और मार्गणाओं की अपेक्षा सत् संख्या आदि रूप से जीवतत्त्व की मीमांसा करनेवाले शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त है, जीव के एकेन्द्रियादि चौदह भेदों के अर्थ में नहीं। (देखिए ,ष.खं./ पु.१/ प्रस्तावना / पृ.६२)। स्वयं वीरसेन स्वामी ने कहा है-"एत्थेदं जीवट्ठाणं भावदो सुदभावपमाणं" अर्थात् इन (नामादि छह प्रमाणों) में से यह 'जीवस्थान' नाम का शास्त्र भावप्रमाण की अपेक्षा श्रुतभावप्रमाणरूप है। (ष.ख./ पु.१/१,१,१ / पृ. ८३)। षट्खण्डागमकारों के अनुसार जीव
के एकेन्द्रियादि चौदह भेदों को 'इन्द्रियमार्गणास्थान' कहा जा सकता है। ४५. क-"गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं।" षट्खण्डागम/पु.५/ १,६,५६।
अनुवाद-"गुणस्थान की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट, इन दोनों प्रकारों से अन्तर
नहीं है, निरन्तर है।" (वही / पृ.४६)। ख-"मणुस्सा चोद्दससु द्वाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी ---।" षट्खण्डागम / पु.१/१,१,२७ ।
षट्खण्डागम के प्रथमसंस्करण में यहाँ ट्ठाणेसु के स्थान में गुणट्ठाणेसु पाठ है। (देखिये, उपर्युक्त सूत्र की पादटिप्पणी १/ षटखण्डागम (तृतीयसंस्करण) / जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर तथा 'आवश्यक निवेदन' पृ. १६)।
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