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२३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१
का यह लक्षण उपलब्ध नहीं है, ४१ अतः श्वेताम्बर - आगम उक्त सूत्र के स्रोत नहीं हो सकते।
'सद् द्रव्यलक्षणम्' सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरीय पाठ में उपलब्ध है, जिस पर पाँचवीं शती ई० के पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी है। इससे सिद्ध होता है कि यह सूत्र 'तत्त्वार्थसूत्र' में पाँचवीं शताब्दी के पूर्व विद्यमान था । और पूज्यपाद ने 'संसारिणो मुक्ताश्च' (त.सू. २ / १०) सूत्र की इसी सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य कुन्दकुन्दकृत 'बारस अणुवेक्खा' की 'सव्वे वि पुग्गला' इत्यादि पाँच गाथाएँ 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की हैं, इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ईसा की पाँचवीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। ये प्रमाण आचार्य कुन्दकुन्द को ईसा की तीसरी - चौथी शती में ले आते हैं, जो पं० सुखलाल जी संघवी के पूर्वोद्धृत वचनानुसार उमास्वाति का काल है। तथा भगवती-आराधना और मूलाचार के पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए थे और ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक विद्यमान रहे। अतः इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि 'दव्वं सल्लक्खणियं' आदि गाथा में वर्णित द्रव्य के तीनों लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं ही प्रतिपादित किये हैं, तत्त्वार्थसूत्र से अनुकृत नहीं हैं।
इस तथ्य से एक महत्त्वपूर्ण बात प्रकट होती है, वह यह कि तत्त्वार्थसूत्र का दिगम्बरीय पाठ श्वेताम्बरीय पाठ से प्राचीन है, क्योंकि उसमें 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' का आधारभूत सूत्र 'सद् द्रव्यलक्षणम्' विद्यमान है, जब कि श्वेताम्बरीय पाठ में वह ग्रहण नहीं किया गया । 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्र में सत् का लक्षण बतलाया गया है। किन्तु 'सत्' का निर्देश हुए बिना उसके लक्षण का प्रतिपादन युक्तिसंगत नहीं है। अतः ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्र का उल्लेख ही यह सिद्ध करता है कि इसके पूर्व 'सत्' का निर्देश करनेवाला 'सद् द्रव्यलक्षणम्' सूत्र का उल्लेख है। श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थसूत्र में इस आधारभूत सूत्र का अभाव सिद्ध करता है कि वह दिगम्बरीय पाठ से अर्वाचीन है ।
४१. ‘स्थानांग' (१०) में उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य का उल्लेख तो है, परन्तु उनसे युक्त पदार्थ को 'सत्' नहीं कहा गया है। वहाँ केवल 'माउयाणुयोग' (मातृकानुयोग ) शब्द की चर्चा है, जिसका अर्थ है 'उत्पादव्ययध्रौव्य' इस पदत्रयी का अनुयोग - "मातृकापदानि 'उप्पणेइ वा ' इत्येवमादीनि तत्समूहो मातृकाकायः । मातृकानुयोगः - मातृका प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणा पदत्रयी तस्या अनुयोगः । " ( अभिधानराजेन्द्रकोश / भाग ६ / पृ. २३५) । उपाध्याय आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र - जैनागमसमन्वय (५/३०) में इस मातृकानुयोग को ही 'सत्' कहा है, जो शब्द और अर्थ दोनों दृष्टियों से असंगत है।
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