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________________ अ०१० / प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २३३ किया है। जब कि उमास्वाति किसी भी स्थिति में तीसरी या चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होते । " (जै.ध. या.सं./पृ. २४८) । तत्पश्चात् डॉक्टर सा० स्वयं के द्वारा प्रकल्पित गुणस्थान - विकासवाद एवं सप्तभंगीविकासवाद की चर्चा करते हैं, जिन्हें उन्होंने कुन्दकुन्द को उमास्वाति से उत्तरकालीन सिद्ध करने के लिए हेतुरूप में प्रस्तुत किया है। इन सभी विद्वानों ने कुन्दकुन्द को उमास्वाति से उत्तरकालीन अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी या ईसा की ८ वीं शताब्दी का सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सभी कपोलकल्पित हैं, यह आगे प्रतिपादित किया जायेगा। यहाँ कुछ ऐसे अन्तरंग प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने ही कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का अनुकरण किया है, कुन्दकुन्द ने तत्त्वार्थसूत्र का नहीं १. हम देखते हैं कि 'सद् द्रव्यलक्षणम्', 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' तथा 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्', द्रव्य के इन तीन लक्षणों में से श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में अन्तिम दो लक्षण ही उपलब्ध होते हैं, 'सद् द्रव्यलक्षणम्' नहीं। ये तीनों लक्षण केवल दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में मिलते हैं । यदि कुन्दकुन्द ने ये लक्षण तत्त्वार्थसूत्र से लिए होते, तो 'सद् द्रव्यलक्षणम्' यह सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में भी होना चाहिए था, किन्तु नहीं । अतः तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ से तो यह सिद्ध नहीं होता कि कुन्दकुन्द ने दव्वं सल्लक्खणियं यह द्रव्य-लक्षण 'तत्त्वार्थसूत्र' के 'सद् द्रव्यलक्षणम्' सूत्र से अनुकृत किया है। अतः सिद्ध है कि उसकी रचना कुन्दकुन्द ने ही की है। और दव्वं सल्लक्खणियं इस वचन द्वारा द्रव्यलक्षण' के रूप में 'सत्' का निर्देश होने पर ही उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं इस वचन द्वारा 'सत्' के लक्षण का प्रतिपादन संभव है, क्योंकि लक्ष्य के निर्देश के बिना लक्षण का निर्देश निराधार होने से युक्तियुक्त नहीं होता । अतः 'सत्' के लक्षण का निर्देश सत्-रूप लक्ष्य के निर्देश की अपेक्षा रखता है, अर्थात् वह सत् - निर्देश - सापेक्ष है । कुन्दकुन्द को सत् के लक्षण का प्रतिपादन अभीष्ट था, अतः उन्होंने सर्वप्रथम दव्वं सल्लक्खणियं वचन द्वारा 'सत्' का निर्देश किया है, तत्पश्चात् उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं वचन द्वारा उसके लक्षण का । इस प्रकार दव्वं सल्लक्खणियं इस वचन के कुन्दकुन्दकृत सिद्ध होने से यह स्वतः सिद्ध होता है कि उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं यह वचन भी कुन्दकुन्दकृत ही है और उसके ही आधार पर तत्त्वार्थसूत्र में 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' सूत्र की रचना की गयी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि श्वेताम्बर -आगमों में सत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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