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२३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
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इस प्रकार पं० सुखलाल जी ने भी तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों और कुन्दकुन्द के वाक्यांशों में घनिष्ठ साम्य स्वीकार किया है। किन्तु उन्होंने सन् १९२९ में लिखे " तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति" नामक लेख में कहा था कि "ये तीनों दिगम्बरीय सूत्रपाठ में के सूत्र कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय की निम्न प्राकृत गाथा 'दव्वं सल्लक्खणियं' में पूर्णरूप से भाषान्तरित होकर गूँथे गये हैं, ऐसा नजर पड़ता है।" ४० अर्थात् वे मानते थे कि कुन्दकुन्द ने तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सूत्रों को प्राकृत में रूपान्तरित कर पंचास्तिकाय की वह गाथा निबद्ध की है। किन्तु आगे चलकर जब तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में उन्होंने वही लेख उद्धृत किया, तो उपर्युक्त शब्द हटा दिये । ( देखिए, त. सू. / वि. स. / सन् १९९३ / पृ.१० ) । क्योंकि जब उन्होंने सर्वार्थसिद्धि के रचनाकाल के आधार पर उमास्वाति का समय विक्रम की प्रथम शताब्दी से लेकर तीसरी-चौथी शताब्दी के बीच अनुमानित किया है, तब ( उनके अनुसार) विक्रम की पहली दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द (त. सू. / वि. स. / प्रस्ता. / पृ. ९) को उमास्वामी का परवर्ती मान लेना संगत कैसे हो सकता था? इस विसंगति के बोध ने उन्हें उक्त शब्द विलोपित करने के लिए बाध्य कर दिया।
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किन्तु, पं० दलसुख मालवणिया, प्रो० एम० ए० ढाकी, डॉ० सागरमल जी तथा और भी अनेक श्वेताम्बर मुनि एवं विद्वान् यह मानने को तैयार नहीं है कि उमास्वामी कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है । वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि कुन्दकुन्द ने ही तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण किया है। फलस्वरूप उन्होंने कुन्दकुन्द को उमास्वामी से उत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार के हेतुओं की कल्पना की है। डॉ० सागरमल जी लिखते हैं
"यह सत्य है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनेक समानताएँ परिलक्षित होती हैं, किन्तु मात्र इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उमास्वाति ने ही इन्हें कुन्दकुन्द से ग्रहण किया है। संभावना यह भी हो सकती है कि कुन्दकुन्द ने ही उमास्वाति से इन्हें लिया हो। हमें तो यह देखना होगा कि उनमें से कौन पूर्व में हुए और कौन पश्चात् ?" (जै. ध. या. स. / पृ.२४७)।
इसके बाद डॉक्टर सा० मुनि कल्याणविजय जी एवं प्रो० ढाकी द्वारा प्रकल्पित हेतुओं का निर्देश करते हुए कहते हैं—
'कुन्दकुन्द छठी शताब्दी के पूर्व तो किसी भी स्थिति में नहीं हुए हैं, इस तथ्य को प्रो० मधुसूदन ढाकी और मुनि कल्याणविजय जी ने अनेक प्रमाणों से प्रतिपादित
४०. ' अनेकान्त' / वर्ष १ / किरण ६-७ / वीर नि. सं. २४५६ / पृ० ३९१ ।
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