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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २३१ ५. उवओगलक्खणा। पं.का.१०९ - उपयोगो लक्षणम्। त. सू.२ / ८ । ६. दव्वं सल्लक्खणियं। पं.का.१० - सद् द्रव्यलक्षणम्। त.सू.५ / २९ । ७. उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। पं.का.१० –उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। त.सू.५ / ३० । ८. गुणपज्जयासयं (दव्वं)। पं.का.१० - गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। त.सू.५ / ३८ । ९. जोगो मणवयणकायसंभूदो। - कायवाङ्मनः कर्म योगः। पं.का.१४८ त.सू.६ /१। १०. आसवणिरोहो (संवरो)। - आस्रवनिरोधः संवरः। स.सा.१६६ त.सू.९/१। ' इस अत्यन्त साम्य से स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनेक सूत्रों की रचना कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर की है, अतः कुन्दकुन्द प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के उमास्वामी से पूर्ववर्ती हैं। ४.३. कुन्दकुन्द के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण नहीं इस साम्य के विषय में पं० सुखलाल जी संघवी तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में लिखते हैं-"ऊपर (संघवी जी द्वारा विवेचित 'तत्त्वार्थसूत्र' की प्रस्तावना, पृष्ठ ८-९ पर) दिये हुए द्रव्य, गुण तथा काल के लक्षणवाले 'तत्त्वार्थ' के तीन सूत्रों के लिए उत्तराध्ययन के अतिरिक्त किसी प्राचीन श्वेताम्बर जैन-आगम अर्थात् अंग का उतना ही शाब्दिक आधार अब तक देखने में नहीं आया, परन्तु विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द के प्राकृत वचनों के साथ तत्त्वार्थ के संस्कृत सूत्रों का. कहीं तो पूर्ण और कहीं बहुत ही कम सादृश्य है। श्वेताम्बर-सूत्रपाठ में द्रव्य के लक्षणवाले दो ही सूत्र हैं-'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (५/२९) तथा 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (५/३७)। इन दोनों के अतिरिक्त द्रव्य का लक्षणविषयक एक तीसरा सूत्र दिगम्बर सूत्रपाठ में है-'सद् द्रव्यलक्षणम्' (५/२९)। ये तीनों दिगम्बर-सूत्रपाठगत सूत्र कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय की निम्न प्राकृत गाथा में पूर्णरूप से विद्यमान हैं दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ १०॥ "इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों के साथ तत्त्वार्थसूत्र का जो शाब्दिक तथा वस्तुगत महत्त्वपूर्ण सादृश्य है, वह आकस्मिक तो नहीं ही है।" (त.सू./ वि.स./ प्रस्ता./ पृ.९-१०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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