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२३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
" उक्त विचारसरणी के अनुसार वा० उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित होता है । इन तीन चार सौ वर्षों के बीच उमास्वाति का निश्चित समय शोधने का काम शेष रह जाता है ।" (त.सू. / वि.स. / प्रस्ता. पृ. ७-८ ) ।
इस वक्तव्य में मान्य संघवी जी ने उमास्वामी का अस्तित्वकाल विक्रम की पहली शताब्दी से लेकर तीसरी-चौथी शताब्दी के बीच सम्भाव्य माना है । दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी में प्रकाशित नन्दिसंघ की पट्टावली में उमास्वामी का जो काल निर्दिष्ट किया गया है, उसकी इससे संगति बैठ जाती है । उसमें उमास्वामी का आचार्यपदारोहणकाल विक्रम सं. १०१ (४४ ई०) बतलाया गया है । तथापि उनका समय उससे कुछ बाद ही बैठता है। उक्त पट्टावली में उमास्वामी का नाम कुन्दकुन्द के बाद आया है । कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों की रचना ईसापूर्व प्रथम शती के अन्तिम चरण तथा ईसोत्तर प्रथम शती के प्रथम चरण में की थी और उनके बाद ईसा की पहली शताब्दी में भगवतीआराधना के कर्त्ता शिवार्य और मूलाचार के रचयिता वट्टकेर हुए, जिन्होंने अपने ग्रन्थों में न केवल कुन्दकुन्द की गाथाएँ ग्रहण की हैं, अपितु उनकी शैली का भी अनुकरण किया है। तत्पश्चात् तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति अवतरित हुए । उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना में उक्त तीनों आचार्यों के ग्रन्थों से सहायता ली है । अतः उमास्वाति का अस्तित्वकाल ईसा की द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध फलित होता है। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ने भी यही काल आकलित किया है । ३९
४.२. कुन्दकुन्द के वाक्यांशों की संस्कृत - छाया
'तत्त्वार्थ' के अनेक सूत्रों की रचना कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर की गई है। उनमें कई सूत्र तो कुन्दकुन्द के वाक्यांशों की संस्कृत-छाया मात्र हैं। इसका विस्तृत विवेचन ‘तत्त्वार्थसूत्र' नामक अध्याय में द्रष्टव्य है । यहाँ उसके कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं
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१. दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
पं. का. १६४
त. सू. १ / १ ।
२. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं । स.सा. १५५ - तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । त.सू.१ / २ ।
३. देवा चउण्णिकाया। पं. का. ११८
देवाश्चतुर्णिकायाः। त.सू.४/१ ।
४. आगासस्सवगाहो । प्र. सा. २ / ४१
आकाशस्यावगाहः । त. सू. ५ / १८ ।
३९. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड २ / पृ.१५३ ।
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