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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २२९ कुन्दकुन्द की गाथाओं से मूलाचार की गाथाओं में जो उपर्युक्त विसंगतियाँ हैं, उनसे सिद्ध होता है कि मूलाचार के कर्ता कुन्दकुन्द नहीं, अपितु वट्टकेर ही हैं। यदि उसकी रचना कुन्दकुन्द ने की होती, तो जैसे उन्होंने चार मंगलाचरणों में णमिऊण जैसे उच्चारण-सुकर एवं श्रुति-मधुर पद का प्रयोग किया है, वैसे ही मूलाचार के उक्त मंगलाचरण में भी करते, णमंसिदूण जैसे उच्चारण-असुकर पद प्रयुक्त न करते, इसी प्रकार नियमसार की तरह मूलाचार में भी मार्ग का लक्षण मग्गो मोक्खउवायो ही बतलाते मग्गो खलु सम्मत्तं नहीं। मूलाचार की 'जीवपरिणामहेदू' गाथा भी समयसार की 'जीवपरिणामहे,' गाथा के समान विसंगतिरहित होतीं। किन्तु मूलाचार की उक्त गाथाओं में ये विशेषताएँ उपलब्ध नहीं होतीं। इससे स्पष्ट है कि उसकी रचना कुन्दकुन्द ने नहीं की।
द्वि. श. ई. के तत्त्वार्थसूत्र में कुन्दकुन्द के वाक्यांश ४.१. तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल
पं० सुखलाल जी संघवी ने सर्वार्थसिद्धि का रचनाकाल विक्रम की पाँचवींछठी शताब्दी स्वीकार कर तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति के समय की उत्तरसीमा उससे दो सौ वर्ष पहले अर्थात् विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित की है। वे लिखते हैं
"(तत्त्वार्थधिगमभाष्य की षट्पद्यात्मक) प्रशस्ति में अपने दीक्षागुरु (घोषनन्दी श्रमण) और विद्यागुरु (वाचकाचार्य मूल) के जो नाम उन्होंने (उमास्वाति ने) दिये हैं, उनमें से एक भी नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली में या वैसी किसी दूसरी पट्टावली में नहीं मिलता। अतः उमास्वाति के समय के सम्बन्ध में स्थविरावली के आधार पर अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीरात् ४७१ अर्थात् विक्रमसंवत् के प्रारंभ में लगभग किसी समय हुए हैं, उससे पहले नहीं, इससे अधिक परिचय अभी अन्धकार में है।
"इस अन्धकार में एक अस्पष्ट प्रकाशकिरण तत्त्वार्थसूत्र के प्राचीन टीकाकार के समय-सम्बन्धी उपलब्ध है, जो उमास्वाति के समय की अनिश्चित उत्तरसीमा को मर्यादित करती है।---स्वोपज्ञ भाष्य को यदि अलग रखा जाय, तो तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध सीधी टीकाओं में आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि सबसे प्राचीन है। पूज्यपाद का समय विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं-छठी शताब्दी निर्धारित किया है। अतः कहा जा सकता है कि सूत्रकार वा० उमास्वाति विक्रम की पाँचवी शताब्दी से पूर्व किसी समय हुए, हैं।
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