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________________ २२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ मूलाचार में ले ली गई हैं, किन्तु 'विरदो सव्वसावज' (नि. सा. १२५ / मूला: ५२४) गाथा का उत्तरार्ध मूलाचार में इस प्रकार बदल दिया गया है विरदो सव्वसावजे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ १२५॥ नि. सा. । विरदो सव्वसावजं तिगुत्तो पिहिदिदिओ। जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं॥ ५२४॥ मूला.। तथा नियमसार की 'जस्स रागो दु दोसो दु' (नि.सा. १२८ / मूला. ५२७), 'जो दु अटुं च रुदं च' (नि. सा. १२९ / मूला. ५३१) तथा 'जो दु धम्मं च सुक्कं च' (नि.सा. १३३ / मूला. ५३१) इन गाथाओं का 'तस्स सामाइगं ठाइ' इत्यादि उत्तरार्धवाक्य मूलाचार में रखा ही नहीं गया, ये मूलाचार में एक-एक ही वाक्यवाली गाथाएँ हैं। इसके अतिरिक्त इसी प्रकार के भाववाली 'जेण कोधो य माणो य' (५२७), 'जस्स सण्णा य लेस्सा य' (५२८), 'जे दुरसे य फासे' (५२९) तथा 'जो रूवगंधसद्दे' (५३०) ये चार गाथाएँ मूलाचार में नयी निबद्ध की गई हैं, जिनका उत्तरार्ध 'तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे' वाक्य ही होना चाहिए था, किन्तु वह यहाँ भी नहीं रखा गया। ये गाथाएँ नियमसार में उपलब्ध नहीं है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि मूलाचार में नियमसार की अपेक्षा काफी परिवर्तित एवं नवीन सामग्री उपलब्ध होती है, जो मूलाचार के नियमसार से अर्वाचीन होने का लक्षण है। इससे यह स्वतः सिद्ध है कि पूर्वोक्त गाथाएँ और पदावलियाँ कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों से मूलाचार में ग्रहण की गई हैं। इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द की अद्वितीय काव्यप्रतिभा, सूक्ष्म अध्यात्मदृष्टि, गहन चिन्तनमनीषा, अध्यात्मग्रन्थों का आद्यकर्तृत्व, बहुमुखी विशाल साहित्यसृष्टि एवं गणधरवत् प्रामाणिकता, वन्दनीयता एवं यशःकीर्ति देखते हुए यह बुद्धिगम्य नहीं होता कि उन्होंने पर-रचित ग्रन्थों से गाथाएँ एवं शब्दावली ग्रहण की होगी। बुद्धिगम्य तो यही होता है कि उनकी अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं आकर्षक सूक्तियों से प्रभावित होकर अन्य ग्रन्थकारों ने ही उनसे अपनी कृतियों को प्रभावी बनाने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्रथम शताब्दी ई. के मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ आत्मसात् की गयी हैं और उनकी शैली का भी अनुकरण किया गया है, इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द-साहित्य मूलाचार की रचना से पहले रचा गया है। फलस्वरूप कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी ही सुनिश्चित होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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