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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २२७ ६. आचार्य कुन्दकुन्द ने काऊण णमुक्कारं इन पदों के साथ दो ग्रन्थों में मंगलाचरण निबद्ध किया है। मूलाचार में भी इन पदों के साथ दो अधिकारों ३७ में मंगलाचरण उपलब्ध होता है, किन्तु जहाँ कुन्दकुन्द ने दोनों जगह एक गाथा में ही मंगलाचरण
और ग्रन्थ-कथन की प्रतिज्ञा का निर्वाह किया है, वहाँ आचार्य वट्टकेर ने 'षडावश्यकाधिकार' में मंगलाचरण का विस्तार कर दो गाथाओं में यह कार्य सम्पन्न किया है।३८ उदाहरणार्थ
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स। दसणमग्गं वोच्छामि जहाकम समासेण॥ १॥ दं.पा.। काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं। वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण॥ १॥ लिं.पा.। काऊण णमोक्कारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं। आइरियउवज्झाए लोगम्मि य सव्वसाहूणं ॥ ५०२॥ मूला.। आवासयणिजुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण।
आयरियपरंपराए जहागदा आणुपुवीए॥ ५०३॥ मूला.। यहाँ द्रष्टव्य है कि कुन्दकुन्द ने लिंगपाहुड में केवल अरहन्तों और सिद्धों को ही नमस्कार किया है, किन्तु मूलाचार में अन्तिम तीन परमेष्ठियों को भी जोड़कर मंगलाचरण का विस्तार कर दिया गया है और 'आवश्यकनियुक्ति' के कथन की प्रतिज्ञा उत्तर गाथा में की गई है। इतना ही नहीं दंसणपाहुड के मंगलाचरण में आये 'जहाकमं समासेण' पदों को भी मूलाचार के कर्ता ने इस गाथाद्वयात्मक मंगलाचरण में समाविष्ट कर लिया है। इस प्रकार आचार्य वट्टकेर ने कुन्दकुन्द की उक्त दो गाथाओं की शब्दसामग्री को लेकर अपने गाथाद्वयात्मक मंगलाचरण की रचना की है और कुन्दकुन्द के मंगलाचरणों की अपेक्षा अपने मंगलाचरण में विस्तार (विकास) कर इस बात का प्रमाण दिया है कि मूलाचार कुन्दकुन्दसाहित्य से अर्वाचीन है।
___७. नियमसार के 'परमसमाधि अधिकार' की १२५वीं गाथा से लेकर १३३वीं गाथा तक समस्त ९ गाथाओं के उत्तरार्ध में 'तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे' वाक्य है। इनमें से 'जो समो सव्वभूदेसु' (नि. सा.१२६ / मूला. ५२६) तथा 'जस्स सण्णिहिदो' (नि. सा. १२७ / मूला.५२५) गाथाएँ तो उसी उत्तरार्ध-सहित ज्यों की त्यों
३७. षडावश्यकाधिकार (गा. ५०२) एवं पर्याप्त्यधिकार (गा. १०४४)। ३८. मूलाचार के 'अनगारभावनाधिकार' की ७६९-७७०वीं गाथाओं में भी ऐसा ही किया
गया है।
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