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२२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
'अण्णाणमओ भावो' इन दोनों गाथाओं के दोनों वाक्यों में ऊपर बतलाये गये परस्परसापेक्ष अर्थों का प्रतिपादन है ।
यद्यपि 'जीवपरिणाम' से जीव के 'शुभाशुभभाव' तथा 'ज्ञानपरिणत' से 'शुभाशुभभाव रहित' एवं 'पुद्गलों के कर्मरूप परिणाम' से 'जीव के द्वारा कर्मों का ग्रहण' अर्थ लेकर गाथा से उपयुक्त अर्थ निकाला जा सकता है, तथापि "जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति" इस वाक्य के शब्द और अर्थ की जितनी तर्कपूर्ण संगति या सापेक्षभाव ‘“पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ" इस वाक्य के साथ है, उतनी "ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियादि" इस वाक्य के साथ नहीं है। इससे सिद्ध है कि 'जीवपरिणामहेदुं' इत्यादि गाथावाक्य मूलतः समयसार का है, मूलाचार में वह समयसार से ग्रहण किया गया है, क्योंकि उसने आचार्य वट्टकेर को बहुत प्रभावित किया है।
४. निम्नलिखित गाथाओं की भी तुलना की जाय -
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो
विरागसंपत्तो ।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ १५० ॥ स.सा. ।
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा | एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ १७९ ॥ प्र.सा.
रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ॥ २४७ ॥ मूला. ।
कुन्दकुन्द की उपर्युक्त दोनों गाथाओं में रत्तो शब्द का प्रयोग होने से ज्ञात होता है कि उन्हें रागी शब्द की अपेक्षा रत्तो शब्द अधिक प्रिय है और उसके प्रयोग की प्रवृत्ति उनके अभ्यास या शैली में है । अतः वे दोनों गाथाएँ कुन्दकुन्द की हैं । इसके अतिरिक्त ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि कुन्दकुन्द की इन दोनों गाथाओं के आधार पर मूलाचार की रागी बंधइ कम्मं गाथा रची गई है, क्योंकि उसमें प्रवचनसार की गाथा के एसो बंधसमासो पदों से प्रेरित होकर समासदो बंधमोक्खाणं यह पदावली निबद्ध की गयी है। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द की ही गाथाएँ मूलाचार में प्रविष्ट हुई हैं।
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५. समयसार की लगातार चार गाथाओं ( २१०-२१३) में अपरिग्गहो अणिच्छो (इच्छारहित जीव ही अपरिग्रही है) पदावली प्रयुक्त हुई है, जबकि मूलाचार की केवल एक गाथा (७८५) में अपरिग्गहा अणिच्छा शब्द आये हैं। इससे भी साबित होता है कि यह प्रयोग मूलतः कुन्दकुन्द का है, जिसका मूलाचार में अनुकरण किया गया है।
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