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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २२५ में गाथा के दोनों वाक्य मौलिक हैं अर्थात् कुन्दकुन्द द्वारा रचित हैं अतः इनमें से किसी भी वाक्य का 'मूलाचार' से लिया जाना युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता। इसके विपरीत 'मूलाचार' में 'जीवपरिणामहेदू---' वाक्य के साथ ‘ण दु णाणपरिणदो---' वाक्य जोड़ देने से दोनों वाक्यों के अर्थ परस्पर असंगत हो गये हैं। पूर्वार्ध में कहा गया है कि जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित हो जाते हैं और उत्तरार्ध में कहा गया है कि ज्ञानपरिणाम से जीव कर्मग्रहण नहीं करता। इससे ऐसा लगता है कि ज्ञानपरिणाम जीव का परिणाम नहीं है, किसी अन्य द्रव्य का परिणाम है, क्योंकि जीवपरिणाम को तो कर्मग्रहण का हेतु बतलाया गया है। किन्तु ज्ञानपरिणाम जीव का ही परिणाम है, इस कारण उपर्युक्त वाक्यों को परस्पर जोड़ देना अर्थ विसंगति का निमित्त बन गया है। यतः ज्ञानपरिणाम जीव का ही परिणाम है, अतः ऐसा कहा जाना चाहिए था "अज्ञानपरिणत जीव कर्मग्रहण करता है और ज्ञानपरिणत जीव कर्मग्रहण नहीं करता," जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की निम्नलिखित गाथा में कहा है अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि। णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि॥ १२७॥ अनुवाद-"अज्ञानी का अज्ञानमय भाव होता है, अतः वह उससे कर्मबन्ध करता है और ज्ञानी का ज्ञानमय भाव होता है, इसलिए वह उससे कर्मबन्ध नहीं करता।" इसी प्रकार मूलाचार में अज्ञानपरिणाम और ज्ञानपरिणाम, इन परस्परविरुद्ध भावों के द्वारा परस्परविरुद्ध फलों की प्राप्ति का कथन किया जाता, तो वाक्यों का अर्थ परस्पर असंगत न होता, किन्तु जीवपरिणाम और ज्ञानपरिणाम इन अविरुद्ध भावों के द्वारा विरुद्ध फलों की प्राप्ति का कथन किये जाने से दोनों वाक्यों का अर्थ परस्पर असंगत हो गया है। इसके अतिरिक्त मूलाचार के 'जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति' इस पूर्ववाक्य में जीवपरिणाम और पुद्गल के कर्मपरिणाम में कर्तृकर्मभाव का निषेध एवं निमित्त-नैमित्तिक भाव का प्रतिपादन किया गया है, इसलिए उत्तरवाक्य में पुद्गलकर्म और जीव के शुभाशुभपरिणाम में भी कर्तृकर्मभाव का निषेध एवं निमित्तनैमित्तिक भाव का प्रतिपादन अपेक्षित था। अथवा उत्तरवाक्य में ज्ञानपरिणत जीव को कर्मग्रहण न करनेवाला बतलाया गया है, इसलिए पूर्ववाक्य में अज्ञानपरिणत जीव को कर्मग्रहण करनेवाला बतलाया जाना चाहिए था। किन्तु ऐसा नहीं किया गया, अतः दोनों वाक्यों के अर्थ परस्पर सापेक्ष नहीं हैं। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द की 'जीवपरिणामहे,' तथा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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