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________________ २२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं॥ १३॥ स.सा.। समयसार में यह गाथा जीवाजीवाधिकारमें १३ वें क्रम पर है और आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में इसे पंचाचाराधिकार के भीतर ठीक 'मग्गो मग्गफलं' गाथा के पश्चात् क्रमांक २०३ पर समायोजित किया है। समयसार में भूतार्थ और अभूतार्थ नयों से वस्तुस्वरूप का जो कथन चल रहा है, उस प्रसंग में इस गाथा का कथन सर्वथा उपयुक्त है, किन्तु मूलाचार में उपयुक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ इन नयों से कथन का प्रसंग नहीं है। सम्यक्त्व का लक्षण वहाँ अन्य शब्दों में बतलाया जा सकता था। निष्कर्ष यह है कि नियमसार की तीसरी और चौथी गाथाओं के अन्तःसम्बन्ध से यह सिद्ध होता है कि 'मग्गो मग्गफलं' गाथा मूलतः कुन्दकुन्द की ही गाथा है, उसे कुछ शाब्दिक परिवर्तन के साथ मूलाचार में ग्रहण कर लिया गया है। इसी प्रकार 'भूयत्थेणाभिगदा' गाथा भी कुन्दकुन्दकृत ही है। वह भी समयसार से मूलाचार में आत्मसात् कर ली गई है। ३. अब समयसार और मूलाचार की निम्नलिखित गाथाओं पर दृष्टिपात किया जाय जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि॥ ८०॥ स.सा.। अनुवाद-"जीव के परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित हो जाते हैं। इसी प्रकार पुद्गलकर्मों के निमित्त से जीव भी (शुभाशुभ-भावरूप में)परिणमित हो जाता है।" जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि॥ ९६९॥ मूला.। अनुवाद-"जीव के परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित हो जाते हैं, किन्तु ज्ञानपरिणत जीव कर्मों का आदान नहीं करता।" समयसार की 'जीवपरिणामहेदूं' गाथा कर्ताकर्माधिकार में कही गई है। इस अधिकार का प्रयोजन यह प्रतिपादित करना है कि जीव न तो पुद्गल के परिणामों का कर्ता है, न पुद्गल जीव के परिणामों का, अपितु वे एक-दूसरे के निमित्त से स्वयं ही अपने-अपने परिणामों के कर्ता हैं। यही बात उक्त गाथा द्वारा प्रतिपादित की गई है। इसलिए प्रकरण के अनुसार गाथा का पूर्वार्ध उत्तरार्ध के साथ और उत्तरार्ध पूर्वार्ध के साथ परस्परसापेक्षभाव से सम्बद्ध है, जिससे सिद्ध होता है कि समयसार Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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