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________________ अ०१०/प्र.१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २२३ णमिऊण सव्वसिद्धे में है। इसी से तो सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द की काव्यप्रतिभा भी अद्वितीय है। २. नियमसार और मूलाचार की अधोलिखित गाथाएँ तुलनीय हैं मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥ २ ॥ नि. सा.। मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥ २०२॥ मूला.। नियमसार की उपर्युक्त गाथा में कुन्दकुन्द ने मोक्ष के उपाय को मार्ग कहा है और 'णियमं णाणदंसणचरित्तं' (नि.सा. ३), 'णियमं मोक्खउवायो' (नि.सा.४)। 'दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो' (पं. का.१६४), इन गाथाओं में दर्शनज्ञानचारित्र को मोक्ष का उपाय या मार्ग बतलाया है। तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष के मार्ग हैं, कोई एक अकेला नहीं, यह सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसके विपरीत मूलाचार की उपर्युक्त गाथा (२०२) में केवल सम्यक्त्व को मोक्ष का मार्ग कहा गया है-'मग्गो खलु सम्मत्तं', जो मोक्षमार्ग के प्रसिद्ध लक्षण के विरुद्ध है और भ्रम उत्पन्न करता है। इसीलिए टीकाकार आचार्य वसुनन्दी को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा है"ननु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि समुदितानि मार्गस्ततः कथं सम्यक्त्वमेव मार्गः। नैष दोषः अवयवे समुदायोपचारात् मार्ग प्रति सम्यक्त्वस्य प्राधान्याद्वा।" (आचारवृत्ति / मूला/ गाथा २०२)। अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र तो समुदायरूप से मोक्ष के मार्ग हैं, तब केवल सम्यक्त्व को मोक्ष का मार्ग क्यों कहा गया? (उत्तर-) इसमें कोई दोष नहीं है। अवयव में समुदाय का उपचार होता है अथवा मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व की प्रधानता है, इसलिए केवल सम्यक्त्व को मोक्ष का मार्ग कहा गया है। . किन्तु कुन्दकुन्द ने जो नियमसार की दूसरी गाथा में 'मोक्ष के उपाय' को मार्ग कहा है-मग्गो मोक्खउवायो, उसमें यह भ्रम नहीं होता और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों का समुदाय मोक्षमार्ग है, यह सीधे-सीधे बुद्धिगम्य हो जाता है, अवयव में समुदाय के उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती। तथा नियमसार की उत्तरवर्ती तीसरी और चौथी गाथाओं में 'मोक्षोपाय' का सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अर्थ स्पष्ट भी कर दिया गया है। अतः इन गाथाओं के प्रसंग में देखने पर इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि नियमसार की उपर्युक्त गाथा में जो 'मग्गो मोक्खउवायो' पद हैं, वे ही मौलिक हैं, 'मग्गो खलु सम्मत्तं' पद मौलिक नहीं हैं। वे मूलाचार के कर्ता द्वारा कल्पित हैं और इसका उद्देश्य है सम्यक्त्व का लक्षण बतलाने के लिए समयसार की निम्नलिखित गाथा को भी 'मूलाचार' में समायोजित करना Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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