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________________ २२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ क्रिया का प्रयोग किया है तथा उसके बाद नमस्करणीय इष्टदेवता के नाम का उल्लेख किया गया है। यथा णमिऊण सव्वसिद्ध झाणुत्तमखविददीहसंसारे। दस दस दो दो य जिणे दस दो अणुपेहणं वोच्छे ॥ १॥ बा.अ.। णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे। वोच्छामि . भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥ १॥ भा.पा.। णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्ध। वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं॥ २॥ मो.पा.। णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं। वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं॥ १॥ नि.सा.। किन्तु मूलाचार में यह शैली कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। वहाँ किसी भी मंगलाचरण में 'णमिऊण' क्रिया का प्रयोग नहीं है। उसके स्थान पर केवल एक जगह ‘णमंसिदूण' क्रिया प्रयुक्त की गई है और वह भी आदि में नहीं, अपितु 'सिद्धे' पद के पश्चात्। जैसे सिद्धे णमंसिदूण य झाणुत्तमखवियदीहसंसारे। दह दह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा वुच्छं॥ ६९३॥ मूला.। कुन्दकुन्द की शैली की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने जहाँ सिद्धों को नमस्कार किया है, वहाँ केवल 'सिद्धे' पद का प्रयोग न कर 'सव्वसिद्धे' पद प्रयुक्त किया है। यथा णमिऊण सर्वसद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे॥ १॥ बा.अ.। वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गईं पत्ते॥ १॥ स.सा. । किन्तु मूलाचार में केवल 'सिद्धे' पद का प्रयोग मिलता है, जैसे उपर्युक्त ६९३ वी गाथा में-'सिद्धे णमंसिदूण।' इस शैलीगत विशिष्टता से सिद्ध होता है कि 'बारस अणुवेक्खा' का उपर्युक्त मंगलाचरण कुन्दकुन्द की ही मौलिक कृति है, मूलाचार से गृहीत नहीं है। इस सत्य के उद्घाटन से यह दूसरा सत्य स्वतः उद्घाटित हो जाता है कि मूलाचार के कर्ता ने ही उसे 'बारस अणुवेक्खा' से ग्रहण किया है तथा उसमें उपर्युक्त प्रकार से कुछ शाब्दिक परिवर्तन कर अपनी किंचित् नवीनता का परिचय दिया है, यद्यपि सिद्धे णमंसिदूण इस नवीन प्रयोग में वह उच्चारण-सौकर्य और श्रुतिमाधुर्य नहीं है, जो Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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