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अ०१० / प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २१७ क्षमाश्रमण द्वारा श्रुतिपरम्परागत समस्त अंगों और उपांगों को पुस्तकारूढ़ कर दिया गया और उनमें से किसी भी अंग या उपांग में उक्त समान गाथाएँ उपलब्ध नहीं हैं, जो कि ‘आवश्यकनिर्युक्ति' आदि पाँचवीं शती ई० के बाद के ग्रन्थों में हैं, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त समान गाथाएँ श्वेताम्बर - परम्परा को अपनी मूल परम्परा से प्राप्त हुई हैं? वे गाथाएँ प्रथम शती ई० की भगवती आराधना और मूलाचार की गाथाओं से समानता रखती हैं, अतः स्पष्ट है कि वे इन्हीं ग्रन्थों से उक्त श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हैं।
तथा श्वेताम्बर मान्य आतुरप्रत्याख्यान एवं भक्तपरिज्ञा का रचना काल ११वीं शती ई० है और उपलब्ध महाप्रत्याख्यान की रचना ५वीं शताब्दी ई० के बाद हुई है। अन्य प्रकीर्णक ग्रन्थ भी अर्वाचीन हैं, क्योंकि वे ५वीं शती ई० में आगमों के लिपिबद्ध होने के बाद ही लिखे गये हैं। इसके प्रमाण 'भगवती आराधना' नामक अध्याय में दर्शनीय हैं। जीवसमास विक्रम की छठी शती में रचा गया है। २९ अतः इन ग्रन्थों की सामग्री का भी प्रथम शती ई० के मूलाचार में आना असंभव है। मूलाचार और भगवती - आराधना से ही कोई सामग्री उक्त ग्रन्थों में जा सकती है। अतः समान गाथाएँ इन ग्रन्थों से ही उपर्युक्त श्वेताम्बर - प्रकीर्णक-ग्रन्थों में गयी हैं। इसलिए मूलाचार की रचना प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध में हुई है, यह मत अबाधित रहता है ।
डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन लिखते हैं- "सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रभृति सभी प्रौढ़शास्त्रज्ञ विद्वानों को मूलाचार की सर्वोपरि प्रामाणिकता एवं प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं है, और उनका कहना है कि उसे यदि स्वयं कुन्दकुन्द - प्रणीत नहीं भी माना जाय, तो भी वह कुन्दकुन्दकालीन ( ८ ई० पू० - ४४ ई०) अर्थात् ईसवी सन् के प्रारंभकाल की रचना तो प्रतीत होती ही है । ३०
ज्योतिषाचार्य डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री का मत है कि आचार्य वट्टकेर का समय कुन्दकुन्द के समकालीन या उससे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए ।
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इस प्रकार सभी विद्वान् उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर प्रथम शताब्दी ई० को ही मूलाचार का रचनाकाल स्वीकार करते हैं ।
३.६. 'मूलाचार' में कुन्दकुन्द की गाथाओं के उदाहरण
मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की इतनी अधिक गाथाएँ मिलती हैं
२९. जीवसमास / भूमिका - डॉ० सागरमल जैन / पृ०१/ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९९८ ई० । ३०. मूलाचार ( भारतीय ज्ञानपीठ ) / प्रधान सम्पादकीय / पृ० ६ ।
३१. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा / खण्डर / पृ. १२० ।
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