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________________ २१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ ३.५. मूलाचार में श्वेताम्बर ग्रन्थों की गाथाएँ नहीं डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"जिन ग्रन्थों के आधार पर मूलाचार की रचना हुई है, वे श्वेताम्बरपरम्परा के मान्य बृहत्प्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास आदि हैं, जिनकी सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी-रूपान्तरण के साथ इसमें गृहीत की गयी हैं। वस्तुतः मूलाचार श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामग्री से निर्मित है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१३१)। वे आगे कहते हैं-"मूलाचार के षडावश्यक अधिकार में 'आवश्यकनियुक्ति' की ८० से अधिक गाथाएँ स्पष्टतः मिलती हैं। --- अधिकांश नियुक्तियाँ भद्रबाहुद्वितीय के द्वारा रचित हैं और इन भद्रबाहु का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी है। इससे एक बात अवश्य स्पष्ट होती है कि मूलाचार विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१३८)। माननीय विद्वान् का यह मत मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमाण इसके विपरीत उपलब्ध होते हैं। विद्वान् श्वेताम्बरसाधु श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री एवं साध्वी संघमित्रा ने भद्रबाहु द्वितीय का समय विक्रम सं० ५६२ (ई० सन् ५०५) के लगभग बतलाया है। और पूर्व में सप्रमाण दर्शाया गया है कि प्रथम-द्वितीय शती ई० के तत्त्वार्थसूत्र में मूलाचारकी गाथाओं के आधार पर अनेक सूत्रों की रचना की गई है। द्वितीय शती ई० की तिलोयपण्णत्ती में देवियों कि आयु के विषय में मूलाचार के कर्ता का मत 'मूलाचार' नामोल्लेख-सहित प्रस्तुत किया गया है और पाँचवी शती ई० के पूज्यपाद स्वामी ने आठवें अध्याय के तीसरे सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में मूलाचार की 'जोगा पयडिपएसा' गाथा (२४४) प्रमाणरूप में उद्धृत की है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि मूलाचार की रचना विक्रम की छठी शताब्दी में रचित आवश्यकनियुक्ति से बहुत पहले ईसा की प्रथम शताब्दी में हो चुकी थी। अतः उसमें जो गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं से साम्य रखती हैं, उनका आवश्यकनियुक्ति से मूलाचार में आना संभव नहीं है, अपितु मूलाचार या भगवती-आराधना से ही आवश्यकनियुक्ति में जाना संभव है। अतः ऐसा ही हुआ है। अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों का मत है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों की जो गाथाएँ समान हैं, वे उन्हें अपनी विभाजनपूर्व-मूलपरम्परा से प्राप्त हुई हैं। इसलिए उन्हें किसी एक ने दूसरे से ग्रहण किया है, यह कहना उचित नहीं है।२८ किन्तु , मेरा मत यह है कि जब पाँचवीं शती (४५४-४६६) ई० में श्री देवर्द्धिगणी २७. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ.४३८, जैनधर्म के प्रभावक आचार्य / पृ.३०० । २८. देखिए , आगे 'मूलाचार' नामक पञ्चदश अध्याय। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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