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२१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ और कुन्दकुन्द की शैली से इतना अधिक सादृश्य है कि कुछ विद्वान् इसे कुन्दकुन्द की ही कृति मानते हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना (पृ.२५) में इसे कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की सूची में शामिल किया है और कहा है कि उन्हें दक्षिण भारत में मूलाचार की कुछ पाण्डुलिपियाँ देखने को मिली हैं, जिनमें उसके कर्ता का नाम कुन्दकुन्द बतलाया गया है। माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित मूलाचार की प्रति की अन्तिम पुष्पिका में भी उसे 'कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' कहा गया है। यथा
___"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत-मूलाचाराख्यविवृतिः। कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य।"३२
किन्तु मूलाचार की 'आचारवृत्ति' नामक टीका के कर्ता आचार्य वसुनन्दी ने वट्टकेराचार्य को उसका कर्ता बतलाया है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने वट्टकेर या वट्टकेरि शब्द को प्रवर्तक का प्राकृतरूप मानकर उसका अर्थ सन्मार्ग-प्रवर्तक किया है और उसे कुन्दकुन्द की उपाधि बतलाया है। इस प्रकार वे भी कुन्दकुन्द को ही मूलाचार का कर्ता मानते हैं।३३ पं० परमानन्द जी शास्त्री ने भी अपने एक शोधलेख में कुन्दकुन्द को मूलाचार का कर्त्ता सिद्ध किया है।३४ आर्यिका ज्ञानमती जी ने भी यद्यपि स्वानुवादित मूलाचार की प्रति में उसके रचयिता के रूप में आचार्य वट्टकेर का नाम प्रकाशित किया है, तथापि 'आद्य उपोद्धात' में उसे कुन्दकुन्द द्वारा ही रचित बतलाया है।३५ किन्तु मेरी दृष्टि से आचार्य वट्टकेर ही मूलाचार के कर्ता हैं, कुन्दकुन्द नहीं। इसके कारणों पर आगे प्रकाश डाला जायेगा।
प्रथम शताब्दी ई० के मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों या किंचित् परिर्वतन करके ग्रहण की गई हैं, जो नीचे दर्शायी जा रही हैं। संक्षेप के लिए गाथाओं का केवल पूर्वार्ध ही उद्धृत किया जा रहा है
१. णमिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमखविददीहसंसारे। बा.अ.१ / मूला.६९३ । २. अद्भुवमसरणमेयत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं। बा.अ.२ / मूला.४०३, ६९४ । ३. एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे। बा.अ.१४ / मूला.७०१ ।
४. अण्णो अण्णं सोयदि मदो त्ति मम णाहगो त्ति मण्णंतो। बा.अ.२२ / मूला.७०३ । ३२. देखिए , पं० जुगलकिशोर मुख्तार : पुरातन जैनवाक्य सूची / प्रस्तावना / पृ०१८ । ३३. वही / पृष्ठ १९। ३४. 'अनेकान्त' । वर्ष २/ किरण ३ / विक्रम सं० १९९५, सन् १९३८ / पृ० २२१-२२४ । ३५. मूलाचार / पूर्वार्ध / भारतीय ज्ञानपीठ / आद्य उपोद्धात / पृष्ठ ३४।
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