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२१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१ रची है और तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसका अनुकरण कर "मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरण---" इत्यादि सूत्र निबद्ध किया है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों से सादृश्य रखनेवाली अन्य पूर्वोक्त गाथाएँ भी आचार्य वट्टकेर ने गुरुपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर स्वयं निबद्ध की हैं और तत्त्वार्थसूत्रकार ने उनका अनुकरण कर तत्त्वार्थसूत्र के पूर्वोदाहृत सूत्र निर्मित किये हैं।
४. सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के वचनों को प्रमाणित करने के लिए कुन्दकुन्द की गाथाओं को आगमप्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यथा"एक प्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम्" (त. सू./५/१४) सूत्र की टीका में 'एक स्थान में पुद्गलों का अवगाह संभव है' इस तथ्य की पुष्टि के लिए पञ्चास्तिकाय की निम्ननिर्दिष्ट गाथा आगम-प्रमाण के रूप में इन वचनों के साथ प्रस्तुत की है
"अवगाहनस्वभावत्वात् सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्। तदुक्तम्
ओगाढगाढणिचिओ पुग्गलकाएहि सव्वदो लोगो। सुहुमेहं बादरेहिं अणंताणंतेहिं विवहेहिं॥
__पं. का./६४, प्र. सा. २/७६ इसी प्रकार पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में "प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः" (त.सू./८/३) का अर्थ स्पष्ट करते हुए योग से प्रकृति-प्रदेशबन्ध और कषाय से स्थितिअनुभाग-बन्ध होते हैं, इस मत का समर्थन मूलाचार की निम्नलिखित गाथा को उद्धृत करके किया है
जोगा पयडि-पएसा ठिदिअणुभागा कसायदो कुणदि।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्ठिदिकारणं णत्थि॥ २४४॥ तथा "सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः" (त. सू.२/३२) की टीका में जीवों की ८४ लाख योनियों के होने की पुष्टि भी मूलाचार की इस गाथा से की है
णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस विगलिंदियेसु छच्चेव।।
सुरणरतिरिए चउरो चोद्दस मणुएसु सदसहस्सा॥ ११०६॥ इससे स्पष्ट होता है कि पंचास्तिकाय, मूलाचार, भगवती-आराधना आदि मौलिक आगमग्रन्थ हैं, जो आचार्यपरम्परा से प्राप्त श्रुतकेवली के उपदेश पर आश्रित हैं। अतः तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा ही मूलाचार से कुछ लेना युक्तियुक्त सिद्ध होता है, मूलाचार के कर्ता द्वारा तत्त्वार्थसूत्र से कुछ लिया जाना नहीं। यतः प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के
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