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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २१३ उमास्वाति के किंचित् पश्चात् ईसा की चौथी शती में हुई है, दूसरे इसके आगम आज उपलब्ध नहीं हैं। संभावना यही है कि इस ग्रन्थ की रचना के आधार उच्चै गर शाखा में प्रचलित फल्गुमित्र के काल के आगम रहे हों।" (जै.ध.या.स./ पृ.२४०)।
किन्तु , डॉ० सागरमल जी की यह संभावनामात्र है, प्रमाणसिद्ध तथ्य नहीं। फल्गुमित्रकालीन आगम आज उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए उनका अस्तित्व ही सन्देहास्पद है। दूसरे, उनके अभाव में यह सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि वे तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार थे। इसके अतिरिक्त वर्तमान में जो पाँचवीं शती ई० में पुस्तकारूढ़ किये गये आगम उपलब्ध हैं, उनमें उल्लिखित सूत्रादि का तत्त्वार्थ के सूत्रों से शब्द, अर्थ और वर्णन क्रम की दृष्टि से साम्य नहीं है। इसका प्रदर्शन ऊपर किया जा चुका है और तत्त्वार्थसूत्र नामक अध्याय में भी द्रष्टव्य है। अतः अन्यथानुपपत्ति से उक्त प्रश्न का समाधान केवल यही है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र की विषयवस्तु को उपर्युक्त दिगम्बरग्रन्थों से ही ग्रहण किया है।
दूसरा प्रश्न यह उठता है कि यदि मूलाचार के कर्ता ने उपर्युक्त विषयवस्तु को तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है, तो उससे सम्बन्धित जो अन्य विषयवस्तु मूलाचार में है और तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है, उसे कहाँ से उपलब्ध किया? जैसे
मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव।
उव्वजइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं॥ १२४८॥ अनुवाद-"मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मों के क्षय से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है।"
यह गाथा यदि मूलाचार के कर्ता ने तत्त्वार्थसूत्र के 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' इस सूत्र (१० / १) से अनुकृत की है, तो
तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली भगवं।
आऊण वेदणीयं चदुहिं खिविइत्तु णीरओ होइ॥ १२४९॥ अनुवाद-"उसके बाद केवली भगवान् एक साथ औदारिक शरीर, नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन चारों कर्मों का क्षय करके कर्मरजरहित हो जाते हैं।"
यह पूर्वोक्त गाथा की अनुपूरक गाथा मूलाचारग्रन्थ के कर्ता ने कहाँ से अनुकृत की? इस आशय का सूत्र तो तत्त्वार्थसूत्र में है ही नहीं। यदि यह गाथा उन्होंने आचार्यपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर रची है, तो पूर्वगाथा (क्र० १२४८) भी आचार्यपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर क्यों नहीं रच सकते थे? अवश्य रच सकते थे। अतः इस उत्तरगाथा से सिद्ध है कि पूर्वगाथा भी आचार्य वट्टकर ने स्वयं ही
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