________________
२१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि मूलाचार की रचना प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के तत्त्वार्थसूत्र से पहले हुई है, अतः वह प्रथम शताब्दी ई० के उत्तरार्ध का ग्रन्थ है। ३.३. मूलाचार में तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण नहीं
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि संभव है मूलाचार के कर्ता ने ही तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण किया हो, किन्तु निम्नलिखित कारणों से यहा शंका निरस्त हो जाती है
१. तत्त्वार्थसूत्र एक लघु संग्रहग्रन्थ है२६ और मूलाचार आचार्यपरम्परा से प्राप्त उपदेश के आधार पर रचित मौलिक ग्रन्थ है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने आचार्यप्रणीत ग्रन्थों से उन्हीं सामान्य तत्त्वों को चुनकर तत्त्वार्थसूत्र में संगृहीत किया है, जो आगम में प्रवेश के लिए प्रथमतः अध्येय हैं। ऐसे तत्त्वों को वे उन्हीं ग्रन्थों से चुन सकते थे, जिनमें प्रथमतः अध्येय सामान्य तत्त्वों का और उत्तरतः अध्येय विशेष तत्त्वों का समानरूप से प्ररूपण हो। तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्ववर्ती ऐसे ग्रन्थ कसायपाहुड, षट्खण्डागम, कुन्दकुन्द-ग्रन्थ, भगवती-आराधना और मूलाचार ही हैं। अतः उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के लिए इन्हीं ग्रन्थों से प्रारंभिक कक्षा में पठनीय विषयवस्तु चुनी है।
२. जैनपरम्परा में आगमग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का प्रचलन उत्तरकालीन है। और तत्त्वार्थसूत्र में जो सामान्य विषयवस्तु है, वह उपर्युक्त प्राकृत ग्रन्थों में ही उपलब्ध है। अतः अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपर्युक्त ग्रन्थों से ही तत्त्वार्थसूत्र की विषयवस्तु का चयन किया है।
३. यदि यह माना जाय कि मूलाचार के कर्ता ने ही तत्त्वार्थसूत्र से उक्त विषयवस्तु ग्रहण की है, तो पहला प्रश्न यह उठता है कि तब तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसे कहाँ से ग्रहण किया? श्वेताम्बरग्रन्थों से ग्रहण करना संभव नहीं था, क्योंकि वे पाँचवी शताब्दी ई० में पुस्तकारूढ़ किये गये थे । डॉ० सागरमल जी ने भी यह बात स्वीकार की है। वे लिखते हैं-"श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य वलभी-वाचना के जो आगम वर्तमान में प्रचलित हैं, वे भी इसका (तत्त्वार्थसूत्र का) आधार नहीं माने जा सकते, क्योंकि यह वाचना उमास्वाति के पश्चात् लगभग ईसा की पाँचवी शती के उत्तरार्ध में हुई है। आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में हुई माथुरी वाचना के आगम इसका आधार हैं, ऐसा. भी निर्विवाद रूप से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक तो यह वाचना भी २६. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं सङ्ग्रहं लघुग्रन्थम्।
वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य॥ २२॥ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / सम्बन्धकारिका।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org